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# '''मरीचि'''- ये भगवान् के अंशांशावतार माने जाते हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं, जिनमें प्रधान दक्ष-प्रजापति की पुत्री सम्भूति और धर्म नामक ब्राह्मण की कन्या धर्मव्रता हैं। इनकी सन्तति का बड़ा विस्तार है। महर्षि कश्यप इन्हीं के पुत्र हैं। ब्रह्मा जी ने इनको पद्मपुराण का कुछ अंश सुनाया था। प्रायः सभी पुराणों में, [[महाभारत]] में और वेदों में भी इनके प्रसंग में बहुत कुछ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने सबसे पहले ब्रह्मपुराण इन्हीं को दिया था। ये सदा-सर्वदा सृष्टि की उत्पथ्त और उसके पालन के कार्य में लगे रहते हैं। इनकी विस्तृत कथा वायुपुराण, स्कन्दपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, विष्णुपुराण और महाभारत आदि में है। | # '''मरीचि'''- ये भगवान् के अंशांशावतार माने जाते हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं, जिनमें प्रधान दक्ष-प्रजापति की पुत्री सम्भूति और धर्म नामक ब्राह्मण की कन्या धर्मव्रता हैं। इनकी सन्तति का बड़ा विस्तार है। महर्षि कश्यप इन्हीं के पुत्र हैं। ब्रह्मा जी ने इनको पद्मपुराण का कुछ अंश सुनाया था। प्रायः सभी पुराणों में, [[महाभारत]] में और वेदों में भी इनके प्रसंग में बहुत कुछ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने सबसे पहले ब्रह्मपुराण इन्हीं को दिया था। ये सदा-सर्वदा सृष्टि की उत्पथ्त और उसके पालन के कार्य में लगे रहते हैं। इनकी विस्तृत कथा वायुपुराण, स्कन्दपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, विष्णुपुराण और महाभारत आदि में है। | ||
# '''अंगिरा'''- ये बड़े ही तेजस्वी महर्षि हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं जिनमें प्रधानतया तीन हैं; उनमें से मरीचि की कन्या सुरूपा से बृहस्पति का, कर्दम ऋषि की कन्या स्वराट् से गौतम-वामदेवादि पाँच पुत्रों का और मनु की पुत्री पथ्या से विष्णु आदि तीन पुत्रों का जन्म हुआ (वायुपुराण, अ. 65)। तथा अग्नि की कन्या आत्रेयी से आंगिरसनामक पुत्रों की उत्पत्ति हुई (ब्रह्मपुराण)। किसी-किसी ग्रन्थ में माना गया है कि बृहस्पति का जन्म इनकी शुभानामक पत्नी से हुआ था। (महाभारत) <br /> | # '''अंगिरा'''- ये बड़े ही तेजस्वी महर्षि हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं जिनमें प्रधानतया तीन हैं; उनमें से मरीचि की कन्या सुरूपा से बृहस्पति का, कर्दम ऋषि की कन्या स्वराट् से गौतम-वामदेवादि पाँच पुत्रों का और मनु की पुत्री पथ्या से विष्णु आदि तीन पुत्रों का जन्म हुआ (वायुपुराण, अ. 65)। तथा अग्नि की कन्या आत्रेयी से आंगिरसनामक पुत्रों की उत्पत्ति हुई (ब्रह्मपुराण)। किसी-किसी ग्रन्थ में माना गया है कि बृहस्पति का जन्म इनकी शुभानामक पत्नी से हुआ था। (महाभारत) <br /> | ||
− | # '''अत्रि'''- ये दक्षिण दिशा की ओर रहते हैं। प्रसिद्ध पतिव्रता अनसूया जी इन्हीं की धर्मपत्नी हैं। अनसूया जी भगवान् कपिलदेव की बहिन और कर्दम- देवहूति की कन्या हैं। भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने वनवास के समय इनका आतिथ्य स्वीकार किया था। अनसूया जी ने जगज्जननी सीता जी को भाँति-भाँति के गहने-कपड़े और सतीधर्म का महान् उपदेश दिया था। ब्रह्मवादियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को जब ब्रह्मा जी ने प्रजाविस्तार के लिये आज्ञा दी, तब अत्रि जी अपनी पत्नी अनसूया जी सहित ऋक्षनामक पर्वत पर जाकर तप करने लगे। ये दोनों भगवान् के बड़े ही भक्त हैं। | + | # '''अत्रि'''- ये दक्षिण दिशा की ओर रहते हैं। प्रसिद्ध पतिव्रता अनसूया जी इन्हीं की धर्मपत्नी हैं। अनसूया जी भगवान् कपिलदेव की बहिन और कर्दम- देवहूति की कन्या हैं। भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने वनवास के समय इनका आतिथ्य स्वीकार किया था। अनसूया जी ने जगज्जननी सीता जी को भाँति-भाँति के गहने-कपड़े और सतीधर्म का महान् उपदेश दिया था। ब्रह्मवादियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को जब ब्रह्मा जी ने प्रजाविस्तार के लिये आज्ञा दी, तब अत्रि जी अपनी पत्नी अनसूया जी सहित ऋक्षनामक पर्वत पर जाकर तप करने लगे। ये दोनों भगवान् के बड़े ही भक्त हैं। इन्होंने घोर तप किया और तप के फलस्वरूप चाहा भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन! ये जगत्पति भगवान् के शरणापन्न होकर उनका अखण्ड चिन्तन करने लगे। इनके मस्तक से योगाग्नि निकलने लगी, जिससे तीनों लोक जलने लगे। तब इनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर-तीनों इन्हें वर देने के लिये प्रकट हुए। भगवान् के तीनों स्वरूपों के दर्शन करके मुनि अपनी पत्नीसहित कृतार्थ हो गये और गद्गद् होकर भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान् ने इन्हें वर माँगने को कहा। ब्रह्माजी की सृष्टि रचने की आज्ञा थी, इसलिये अत्रि ने कहा-‘मैंने पुत्र के लिये भगवान् की आराधना की थी और उनके दर्शन चाहे थे, आप तीनों पधार गये। आप लोगों की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझ पर यह कृपा कैसे हुई, आप ही बतलाइये।’ अत्रि के वचन सुनकर तीनों मुसकुरा दिये और बोले- ‘ब्रह्मन्! तुम्हारा संकल्प सत्य है। तुम जिनका ध्यान करते हो, हम तीनों वे ही हैं- एक के ही तीन स्वरूप हैं। हम तीनों के अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे। तुम तो कृतार्थरूप हो ही।’ इतना कहकर भगवान् के तीनों स्वरूप अन्तर्धान हो गये। तीनों ने उनके यहाँ अवतार धारण किया। भगवान् विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा और शिव जी के अंश से दुर्वासा जी हुए। भक्ति का यही प्रताप है। जिनकी ध्यान में भी कल्पना नहीं हो सकती; वे ही बच्चे बनकर गोद में खेलने लगे। (वाल्मीकीय रामायण, वनकाण्ड और श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 4) |
# पुलस्त्य - ये बडे़ ही धर्मपरायण, तपस्वी और तेजस्वी हैं। योगविद्या के बहुत बड़े आचार्य और पारदर्शी हैं। पराशर जी जब राक्षसों का नाश करने के लिये एक बड़ा यज्ञ कर रहे थे, तब वसिष्ठ की सलाह से पुलस्त्य ने उनके यज्ञ बंद करने के लिये कहा। पराशर जी ने पुलस्त्य की बात मानकर यज्ञ रोक दिया। इससे प्रसन्न होकर महर्षि पुलस्तय ने ऐसा आशीर्वाद दिया, जिससे पराशर को समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो गया। इनकी सन्ध्या, प्रतीची, प्रीति और हविर्भू नामक पत्नियाँ हैं-जिनसे कई पुत्र हुए। दत्तोलि अथवा अगस्त्य और प्रसिद्ध ऋषि निदाघ इन्हीं के पुत्र हैं। विश्रवा भी इन्हीं के पुत्र हैं- जिनसे कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण का जन्म हुआ था। पुराणों में और महाभारत में जगह-जगह इनकी चर्चा आयी है। इनकी कथा विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कूर्मपुराण, श्रीमद्धागवत, वायुपुराण और महाभारत- उद्योगपर्व में विस्तार से है। | # पुलस्त्य - ये बडे़ ही धर्मपरायण, तपस्वी और तेजस्वी हैं। योगविद्या के बहुत बड़े आचार्य और पारदर्शी हैं। पराशर जी जब राक्षसों का नाश करने के लिये एक बड़ा यज्ञ कर रहे थे, तब वसिष्ठ की सलाह से पुलस्त्य ने उनके यज्ञ बंद करने के लिये कहा। पराशर जी ने पुलस्त्य की बात मानकर यज्ञ रोक दिया। इससे प्रसन्न होकर महर्षि पुलस्तय ने ऐसा आशीर्वाद दिया, जिससे पराशर को समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो गया। इनकी सन्ध्या, प्रतीची, प्रीति और हविर्भू नामक पत्नियाँ हैं-जिनसे कई पुत्र हुए। दत्तोलि अथवा अगस्त्य और प्रसिद्ध ऋषि निदाघ इन्हीं के पुत्र हैं। विश्रवा भी इन्हीं के पुत्र हैं- जिनसे कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण का जन्म हुआ था। पुराणों में और महाभारत में जगह-जगह इनकी चर्चा आयी है। इनकी कथा विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कूर्मपुराण, श्रीमद्धागवत, वायुपुराण और महाभारत- उद्योगपर्व में विस्तार से है। | ||
# '''पुलह'''- ये बड़े ऐश्वर्यवान् और ज्ञानी महर्षि हैं। इन्होंने महर्षि सनन्दन से ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी और वह ज्ञान गौतम को सिखाया था। इनके दक्षप्रजापति की कन्या क्षमा और कर्दम ऋषि की पुत्री गति से अनेकों सन्तान हुई। कूर्मपुराण, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत में इनकी कथा है। | # '''पुलह'''- ये बड़े ऐश्वर्यवान् और ज्ञानी महर्षि हैं। इन्होंने महर्षि सनन्दन से ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी और वह ज्ञान गौतम को सिखाया था। इनके दक्षप्रजापति की कन्या क्षमा और कर्दम ऋषि की पुत्री गति से अनेकों सन्तान हुई। कूर्मपुराण, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत में इनकी कथा है। |
01:02, 28 अप्रॅल 2018 के समय का अवतरण
श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
मरीचिरङिराश्चात्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः। ‘मरीचि, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वसिष्ठ- ये सातों महर्षि तुम्हारे (ब्रह्मा जी के) द्वारा ही अपने मन से रचे हुए हैं। ये सातों वेद के ज्ञाता हैं, इनको मैंने मुख्य वेदाचार्य बनाया है। ये प्रवृत्तिमार्ग का संचालन करने वाले हैं और (मेरे ही द्वारा) प्रजापति के कर्म में नियुक्त किये गये हैं।’ इस कल्प के सर्वप्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर के सप्तर्षि यही हैं।[2] अतएव यहाँ सप्तर्षियों से इन्हीं का ग्रहण करना चाहिये।[3] प्रश्न- यहाँ सप्त महर्षियों से इस वर्तमान मन्वन्तर के विश्वामित्र, जमदग्नि, भरद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ और कश्यप- इन सातों को मान लिया जाय तो क्या आपत्ति है? उत्तर- इन विश्वामित्र आदि सप्त महर्षियों में अत्रि और वसिष्ठ के अतिरिक्त अन्य पाँच न तो भगवान् के ही मानस पुत्र हैं और न ब्रह्मा के ही। अतएव यहाँ इनको न मानकर उन्हीं को मानना ठीक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महा., शान्ति. 340। 69-70
- ↑ हरिवंश. 7।8, 9
- ↑ ये सातों ही अत्यन्त तेजस्वी, तपस्वी और बुद्धिमान् प्रजापति हैं। प्रजा की उत्पत्ति करने वाले होने के कारण इनको ‘सप्त ब्रह्मा’ कहा गया है। (महाभारत‚ शान्तिपर्व 208। 3, 4, 5)। इनका संक्षप्त चरित्र इस प्रकार है-
- मरीचि- ये भगवान् के अंशांशावतार माने जाते हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं, जिनमें प्रधान दक्ष-प्रजापति की पुत्री सम्भूति और धर्म नामक ब्राह्मण की कन्या धर्मव्रता हैं। इनकी सन्तति का बड़ा विस्तार है। महर्षि कश्यप इन्हीं के पुत्र हैं। ब्रह्मा जी ने इनको पद्मपुराण का कुछ अंश सुनाया था। प्रायः सभी पुराणों में, महाभारत में और वेदों में भी इनके प्रसंग में बहुत कुछ कहा गया है। ब्रह्मा जी ने सबसे पहले ब्रह्मपुराण इन्हीं को दिया था। ये सदा-सर्वदा सृष्टि की उत्पथ्त और उसके पालन के कार्य में लगे रहते हैं। इनकी विस्तृत कथा वायुपुराण, स्कन्दपुराण, अग्निपुराण, पद्मपुराण, मार्कण्डेयपुराण, विष्णुपुराण और महाभारत आदि में है।
- अंगिरा- ये बड़े ही तेजस्वी महर्षि हैं। इनके कई पत्नियाँ हैं जिनमें प्रधानतया तीन हैं; उनमें से मरीचि की कन्या सुरूपा से बृहस्पति का, कर्दम ऋषि की कन्या स्वराट् से गौतम-वामदेवादि पाँच पुत्रों का और मनु की पुत्री पथ्या से विष्णु आदि तीन पुत्रों का जन्म हुआ (वायुपुराण, अ. 65)। तथा अग्नि की कन्या आत्रेयी से आंगिरसनामक पुत्रों की उत्पत्ति हुई (ब्रह्मपुराण)। किसी-किसी ग्रन्थ में माना गया है कि बृहस्पति का जन्म इनकी शुभानामक पत्नी से हुआ था। (महाभारत)
- अत्रि- ये दक्षिण दिशा की ओर रहते हैं। प्रसिद्ध पतिव्रता अनसूया जी इन्हीं की धर्मपत्नी हैं। अनसूया जी भगवान् कपिलदेव की बहिन और कर्दम- देवहूति की कन्या हैं। भगवान् श्रीरामचन्द्र जी ने वनवास के समय इनका आतिथ्य स्वीकार किया था। अनसूया जी ने जगज्जननी सीता जी को भाँति-भाँति के गहने-कपड़े और सतीधर्म का महान् उपदेश दिया था। ब्रह्मवादियों में श्रेष्ठ महर्षि अत्रि को जब ब्रह्मा जी ने प्रजाविस्तार के लिये आज्ञा दी, तब अत्रि जी अपनी पत्नी अनसूया जी सहित ऋक्षनामक पर्वत पर जाकर तप करने लगे। ये दोनों भगवान् के बड़े ही भक्त हैं। इन्होंने घोर तप किया और तप के फलस्वरूप चाहा भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन! ये जगत्पति भगवान् के शरणापन्न होकर उनका अखण्ड चिन्तन करने लगे। इनके मस्तक से योगाग्नि निकलने लगी, जिससे तीनों लोक जलने लगे। तब इनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और शंकर-तीनों इन्हें वर देने के लिये प्रकट हुए। भगवान् के तीनों स्वरूपों के दर्शन करके मुनि अपनी पत्नीसहित कृतार्थ हो गये और गद्गद् होकर भगवान् की स्तुति करने लगे। भगवान् ने इन्हें वर माँगने को कहा। ब्रह्माजी की सृष्टि रचने की आज्ञा थी, इसलिये अत्रि ने कहा-‘मैंने पुत्र के लिये भगवान् की आराधना की थी और उनके दर्शन चाहे थे, आप तीनों पधार गये। आप लोगों की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता। मुझ पर यह कृपा कैसे हुई, आप ही बतलाइये।’ अत्रि के वचन सुनकर तीनों मुसकुरा दिये और बोले- ‘ब्रह्मन्! तुम्हारा संकल्प सत्य है। तुम जिनका ध्यान करते हो, हम तीनों वे ही हैं- एक के ही तीन स्वरूप हैं। हम तीनों के अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे। तुम तो कृतार्थरूप हो ही।’ इतना कहकर भगवान् के तीनों स्वरूप अन्तर्धान हो गये। तीनों ने उनके यहाँ अवतार धारण किया। भगवान् विष्णु के अंश से दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा और शिव जी के अंश से दुर्वासा जी हुए। भक्ति का यही प्रताप है। जिनकी ध्यान में भी कल्पना नहीं हो सकती; वे ही बच्चे बनकर गोद में खेलने लगे। (वाल्मीकीय रामायण, वनकाण्ड और श्रीमद्भागवत, स्कन्ध 4)
- पुलस्त्य - ये बडे़ ही धर्मपरायण, तपस्वी और तेजस्वी हैं। योगविद्या के बहुत बड़े आचार्य और पारदर्शी हैं। पराशर जी जब राक्षसों का नाश करने के लिये एक बड़ा यज्ञ कर रहे थे, तब वसिष्ठ की सलाह से पुलस्त्य ने उनके यज्ञ बंद करने के लिये कहा। पराशर जी ने पुलस्त्य की बात मानकर यज्ञ रोक दिया। इससे प्रसन्न होकर महर्षि पुलस्तय ने ऐसा आशीर्वाद दिया, जिससे पराशर को समस्त शास्त्रों का ज्ञान हो गया। इनकी सन्ध्या, प्रतीची, प्रीति और हविर्भू नामक पत्नियाँ हैं-जिनसे कई पुत्र हुए। दत्तोलि अथवा अगस्त्य और प्रसिद्ध ऋषि निदाघ इन्हीं के पुत्र हैं। विश्रवा भी इन्हीं के पुत्र हैं- जिनसे कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण का जन्म हुआ था। पुराणों में और महाभारत में जगह-जगह इनकी चर्चा आयी है। इनकी कथा विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कूर्मपुराण, श्रीमद्धागवत, वायुपुराण और महाभारत- उद्योगपर्व में विस्तार से है।
- पुलह- ये बड़े ऐश्वर्यवान् और ज्ञानी महर्षि हैं। इन्होंने महर्षि सनन्दन से ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा प्राप्त की थी और वह ज्ञान गौतम को सिखाया था। इनके दक्षप्रजापति की कन्या क्षमा और कर्दम ऋषि की पुत्री गति से अनेकों सन्तान हुई। कूर्मपुराण, विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत में इनकी कथा है।
- क्रतु- ये भी बड़े ही तेजस्वी महर्षि हैं। इन्होंने कर्दम ऋषि की कन्या क्रिया और दक्षपुत्री सन्नति से विवाह किया था। इनके साठ हजार बालखिल्य नामक ऋषियों ने जन्म लिया। ये ऋषि भगवान् सूर्य के रथ के सामने उनकी ओर मुँह करते स्तुति करते हुए चलते हैं। पुराणों में इनकी कथाएँ कई जगह आयी हैं। (श्रीमद्भागवत चतुर्थस्कन्ध; विष्णुराण-प्रथम अंश)
- वसिष्ठ- महर्षि वसिष्ठ का तप, तेज, क्षमा और धर्म विश्वविदित है। इनकी उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में कई प्रकार के वर्णन मिलते हैं, जो कल्पभेद की दृष्टि से सभी ठीक हैं। वसिष्ठ जी की पत्नी का नाम अरुधन्ती है। ये बड़ी ही साध्वी और पतिव्रताओं में अग्रगण्य हैं। वसिष्ठ सूर्यवंश के कुलपुरोहित थे। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीराम के दर्शन और सत्संग लोभ से ही इन्होंने सूर्यवंशी राजाओं की पुरोहिती स्वीकार की और सूर्यवंश के हित के लिये ये लगातार चेष्टा करते रहे। भगवान् श्रीराम को शिष्यरूप में पाकर इन्होंने अपने जीवन को कृतकृत्य समझा। कहा जाता है कि ‘तपस्या बड़ी है या सत्संग?’ इस विषय पर एक बार विश्वामित्र से इनका मतभेद हो गया। वसिष्ठ जी कहते थे कि सत्संग बड़ा है और विश्वामित्र जी तप को बड़ा बतलाते थे। अन्त में दोनों पंचायत कराने के लिये शेष जी के पास पहुँचे। इनके विवाद के कारण को सुनकर शेष भगवान् ने कहा कि ‘भगवन्! आप देख रहे हैं कि मेरे सिर पर सारी पृथ्वी का भार है। आप दोनों में कोई महात्मा थोड़ी देर के लिये इस भार को उठा लें तो मैं सोच-समझकर आपका झगड़ा निपटा हूँ।’ विश्वामित्र को अपने तप का बड़ा भरोसा था; उन्होंने दस हजार वर्ष की तपस्या का फल देकर पृथ्वी को उठाना चाहा, परंतु उठा न सके। पृथ्वी काँपने लगी। तब वसिष्ठ जी ने अपने सत्संग का आधे क्षण का फल देकर पृथ्वी को सहज ही उठा लिया और बहुत देर तक उसे लिये खड़े रहे। विश्वामित्र जी ने शेष भगवान् से पूछा कि ‘इतनी देर हो गयी, आपने निर्णय क्यों नहीं सुनाया?’ तब उन्होंने हँसकर कहा। ‘ऋषिवर! निर्णय तो अपने-आप ही हो गया। जब आधे क्षण के सत्संग की बराबरी दस हजार वर्ष के तप से नहीं हो सकती, तब आप ही सोच लीजिये कि दोनों में कौन बड़ा है।’ सत्संग की महिमा जानकर दोनों ही ऋषि प्रसन्न होकर लौट आये।
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