श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
महर्षय: सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा ।
उत्तर- सप्तर्षियों के लक्षण बतलाते हुए कहा गया है- एतान् भावानधीयाना ये चौत ऋषयो मताः।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वायुपुराण 61। 93-94
- ↑ देवर्षियों के लक्षण इसी अध्याय के 12-13वें श्लोकों की टीका में देखिये।
- ↑ ये सप्ततिर्ष प्रवृत्तिमार्गी होते हैं, इनके विचारों का और जीवन का वर्णन इस प्रकार है-
षट्कर्माभिरता नित्यं शालिनो गृहमेधिनः। तुल्यैर्व्यवहरन्ति स्म अदृष्टैः कर्महेतुभिः।।
अग्राम्यैर्वर्तयन्ति स्म रसैश्चैव स्वयंकृतैः। कुटुम्बिनः ऋद्धिमन्तो बाह्यान्तरनिवासिनः।।
कृतादिषु युगाख्येषु सर्वेष्वेव पुनः पुनः। वर्णाश्रमव्यवस्थानं क्रियते प्रथमं तु वै।। (वायुपुराण 64। 15-17)ये महर्षि पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना-लेना इन छः कर्मों को सदा करने वाले, ब्रह्मचारियों को पढ़ाने के लिये घरों में गुरुकुल रखने वाले तथा प्रजा की उत्पत्ति के लिये ही स्त्री और अग्नि का ग्रहण करने वाले होते हैं। कर्मजन्य अदृष्ट की दृष्टि से (अर्थात् वर्ण आदि में) जो समान हैं, उन्हीं के साथ ये व्यहार करते हैं और अपने ही द्वारा रचित अनिन्द्य भोग्य-पदार्थों से निर्वाह करते हैं। ये बाल-बच्चे वाले, गो-धन आदि सम्पत्ति वाले तथा लोकों के बाहर तथा भीतर निवास करने वाले हैं। सत्या आदि सभी युगों के आरम्भ में पहले-पहले से ही सब महर्षिगण बार-बार वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था किया करते हैं।
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