श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
संसार में आना, चौरासी लाख योनियों में भटकना हमारा काम नहीं है। ये देश, गाँव, कुटुम्ब, धन, पदार्थ, शरीर आदि हमारे नहीं है और हम इनके नहीं है। ये देश आदि सभी अपरा प्रकृति है और हम परा प्रकृति हैं। परंतु भूल से हमने अपने को यहाँ का रहने वाला मान लिया है। इस भूल को मिटाना चाहिए; क्योंकि हम भगवान के अंश हैं, भगवान के धाम के हैं। जहाँ से लौटकर नहीं आना पड़ता, वहाँ जाना हमारा खास काम है, जन्म-मरण से रहित होना हमारा खास काम है। परंतु अपने घर जाने को, खुद की चीज को कठिन मान लिया, उद्योगसाध्य मान लिया! वास्तव में यह कठिन नहीं है। कठिन तो संसार का रास्ता है, जो कि नया पकड़ना पड़ता है, नया शरीर धारण करना पड़ता है, नये कर्म करने पड़ते हैं; और कर्म के फल भोगने के लिए नये-नये लोकों में नयी-नयी योनियों में जाना पड़ता है। भगवान की प्राप्ति तो सुगम है; क्योंकि भगवान सब देश में हैं, सब काल में हैं, सब वस्तुओं में है, सब व्यक्तियों में है, सब घटनाओं में हैं, सब परिस्थितियों में है और सभी भगवान में हैं। हम हरदम भगवान के साथ हैं और भगवान हरदम हमारे साथ हैं। हम भगवान से और भगवान हमारे से कभी अलग हो ही नहीं सके। तात्पर्य यह हुआ कि हम यहाँ के, जन्म-मृत्यु वाले संसार के नहीं है। यह हमारा देश नहीं है। हम इस देश के नहीं है। यहाँ की वस्तुएँ हमारी नहीं है। हम इन वस्तुओं के नहीं है। हमारे ये कुटुम्बी नहीं है। हम इन कुटुम्बियों के नहीं है। हम तो केवल भगवान के हैं और भगवान ही हमारे हैं। संबंध- इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोक में जिस राजविद्या की महिमा कही गयी है, अब आगे के दो श्लोकों में उसी का वर्णन करते हैं। |
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