श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
पंचदश अध्याय
जिस प्रकार व्यापारी को (एकमात्र धन-प्राप्ति का उद्देश्य रहने पर) माल लेने, माल देने आदि व्यापार-संबंधी प्रत्येक क्रिया में धन ही दीखता है, इसी प्रकार परमात्मतत्त्व के जिज्ञासु को (एकमात्र परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रहने पर) प्रत्येक वस्तु, क्रिया आदि में तत्त्वरूप से परमात्मा ही दीखते हैं। उसको ऐसा अनुभव हो जाता है कि परमात्मा के सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है नहीं, हो सकता ही नहीं। अर्जुन ने चौदहवें अध्याय में गुणातीत होने का उपाय पूछा था। गुणों के संग से ही जीव संसार में फँसता है। अतः गुणों का संग मिटाने के लिए भगवान ने यहाँ अपने प्रभाव का वर्णन किया है। छोटे प्रभाव को मिटाने के लिए बड़े प्रभाव की आवश्यकता होती है। अतः जब तक जीव पर गुणों (संसार) का प्रभाव है, तब तक भगवान के प्रभाव को जानने की बड़ी आवश्यकता है। अपने प्रभाव का वर्णन करते हुए भगवान ने (इस अध्याय के बारहवें से पंद्रहवें श्लोक तक) यह बताया कि मैं ही संपूर्ण जगत् को प्रकाशित करता हूँ; मैं ही पृथ्वी में प्रवेश करके सब प्राणियों को धारण करता हूँ; मैं ही पृथ्वी पर अन्न उत्पन्न करके उसको पुष्ट करता हूँ; जब मनुष्य उस अन्न को खाता है, तब मैं ही वैश्वानर-रूप से उस अन्न को पचाता हूँ और मनुष्य में स्मृति, ज्ञान और अपोहन भी मैं ही करता हूँ। इस वर्णन से सिद्ध होता है कि आदि से अंत तक, समष्टि से व्यष्टि तक की संपूर्ण क्रियाएँ भगवान के अंतर्गत, उन्हीं की शक्ति से हो रही हैं। मनुष्य अहंकारवश अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है अर्थात उन क्रियाओं को व्यक्तिगत मान लेता है और बँध जाता है। संबंध- भगवान ने इसी अध्याय के पहले श्लोक से पंद्रहवें श्लोक तक (तीन प्रकरणों में) क्रमशः संसार, जीवात्मा और परमात्मा का विस्तार से वर्णन किया। अब उस विषय का उपसंहार करते हुए आगे के दो श्लकों में उन तीनों का क्रमशः क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम नाम से स्पष्ट वर्णन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वस्तुतः रुपयों की संख्या के आधार पर अपने को छोटा या बड़ा मानना पतन का चिह्न है। रुपयों की संख्या केवल अभिमान बढ़ाने के सिवाय और कुछ काम नहीं आती। अभिमान आसुरी संपत्ति का मूल है। जितने भी दुर्गुण-दुराचार, पाप हैं, सब अभिमानरूपी वृक्ष की छाया में रहते हैं।
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