श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी172. महाप्रभु का अदर्शन अथवा लीलासंवरण
भक्तों को जगन्नाथ पुरी अब उजड़ी हुई नगरी-सी मालूम हुई। किसी ने तो उसी समय समुद्र में कूदकर प्राण गँवा दिये। किसी ने कुछ किया और बहुत-से पुरी को छोड़कर विभिन्न स्थानों में चले गये। पुरी से अब गौराहट उठ गयी। वक्रेश्वर पण्डित ने फिर उसे जमाने की चेष्टा की, किन्तु उसका उल्लेख करना विषयान्तर हो जायगा। किसी के जमाने में हाट थोडे ही जमती है, लाखों मठ हैं और उनके लाखों ही पैर पुजाने वाले महन्त हैं, उनमें वह चैतन्यता कहाँ। साँप निकल गया, पीछे से लकीर को पीटते रहो। इससे क्या? इस प्रकार अड़तालीस वर्षों तक इस धराधाम पर प्रेमरूपी अमृत की वर्षा करने के पश्चात महाप्रभु अपने सत्वस्वरूप में जाकर अवस्थित हो गये। बोलो प्रेमावतार श्री चैतन्य देव की जय ! बोलो उनके सभी प्रियपार्षदों की जय ! बोलो भगवन्नाम प्रचारक श्री गौरचन्द्र की जय ! नामसंकीर्तनं यस्य सर्वपापप्रणाशनम्। ‘जिनके नाम का सुमधुर संकीर्तन सर्व पापों को नाश करने वाला है और जिनको प्रणाम करना सकल दु:खों को नाश करने वाला है उन सर्वोत्तम श्रीहरि के पादपद्मों में मैं प्रणाम करता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 12।13।23
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