श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी167. उन्मादावस्था की अदभुत आकृति
अर्थात 'महाप्रभु के हाथ-पैर पेट के भीतर धँसे हुए थे। उनकी आकृति कछुए की सी बन गयी थी। मुख से निरन्तर फेन निकल रहा था, सम्पूर्ण अंग के रोम खड़े हुए थे। दोनों नेत्रों से अश्रुधारा बह रही थी। वे कूष्माण्ड-फल की भाँति अचेतन पड़े हुए थे। बाहर से तो जडता प्रतीत होती थी, किन्तु भीतर ही भीतर वे आनन्द में विह्वल हो रहे थे। गौएं चारों ओर खडी होकर प्रभु के श्रीअंग को सूँघ रही थीं। उन्हें बार-बार हटाते थे, किन्तु वे प्रभु के अंग के संग को छोडना ही नहीं चाहती थीं। फिर वहीं आ जाती थीं।’ अस्तु, भक्तों ने मिलकर संकीर्तन किया। कानों में जोरों से हरिनाम सुनाया, जल छिड़का, वायु की तथा और भी भाँति-भाँति के उपाय किये, किन्तु प्रभु को चेतना नहीं हुई। तब विवश होकर भक्तवृन्द उन्हें उसी दशा में उठाकर निवास स्थान की ओर ले चले। वहाँ पहुँचने पर प्रभु को कुछ-कुछ होश होने लगा। उनके हाथ पैर धीरे-धीरे पेट में से निकलकर सीधे होने लगे। शरीर में कुछ-कुछ रक्त का संचार सा होता हुआ प्रतीत होने लगा। थोड़ी ही देर में अर्धबाह्य दशा में आकर इधर-उधर देखते हुए जोरों के साथ क्रन्दन करते हुए कहने लगे– ‘हाय, हाय ! मुझे यहाँ कौन ले आया ? मेरा वह मनमोहन श्याम कहाँ चला गया? मैं उसकी मुरली की मनोहर तान को सुनकर ही गोपियों के साथ उधर चली गयी। श्याम ने अपने संकेत के समय वही मनोहारिणी मुरली बजायी। उस मुरली-रव में ऐसा आकर्षण था कि सखियों की पांचों इन्द्रियां उसी ओर आकर्षित हो गयीं। |