श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी163. प्रेम की अवस्थाओं का संक्षिप्त परिचय
व्याधि– शरीर में किसी कारण से जो वेदना होती है उसे ‘व्याधि’ कहते हैं और मन की वेदना को ‘आधि’ कहते हैं। विरह की ‘व्याधि’ भी एक दशा है। उदाहरण लीजिये। श्रीराधा जी अपनी प्रिय सखी ललिता से कह रही हैं – उत्तापी पुटपाकतोऽपि गरलग्रामादपि क्षोभणो। हे सखि ! गोकुलपति उस गोपाल का विच्छेद ज्वर मुझे बड़ा ही पीडा दे रहा है। यह पात्र में तपाये सुवर्ण से भी अधिक उत्तापदायी है। पृथ्वी पर जितने जहर है उन सबसे अधिक क्षोभ पहुँचाने वाला है, वज्र से भी दु:सह, हृदय में छिदे हुए शल्य से भी अधिक कष्टदायी है तथा तीव्र विसूचिकादि रोगों से भी बढ़कर यन्त्रनाएँ पहुँचा रहा है। प्यारी सखी ! यह ज्वर मेरे मर्मस्थानों को भेदन कर रहा है।’ इसी का नाम ‘विरहव्याधि’ है। उन्माद– साधारण चेष्टाएं जब बदल जाती हैं और विरह के आवेश में जब विरहिणी अटपटी और विचित्र चेष्टाएँ करने लगती हैं तो उसे ही ‘विरहोन्माद’ कहते हैं। उदाहरण लीजिये। उद्धव जी मथुरा पहुँचकर श्री राधिका जी की चेष्टाओं का वर्णन कर रहे हैं– भ्रमति भवनगर्भं निर्निमित्तं हसन्ती |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ललितमाधवनाटक