श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी160. जगदानन्द जी की एकनिष्ठा
व्रज की गौ चराने वाले ग्वाल पैंचू और पके पीलू खाया करते हैं। उनमें बीज ही बीज भरे रहते हैं। रस तो बहुत थोड़ा बीज में लगा हुआ होता है। बीजों में के रस को चूसकर ‘शरीफे’ के बीजों की भाँति उन्हें थूक देते हैं। ये ही व्रज के मेवा हैं। श्रीकृष्ण भगवान को ये ही बहुत प्रिय थे। क्यों प्रिय थे, इसका क्या पता ? इसी से जो खीजकर किसी भक्त ने कहा है- काबुल में मेवा करी, ब्रज में टैंटी खायँ। अस्तु, जगदानन्द जी सनातन जी के दिये हुए प्रसाद को लेकर, उनसे विदा होकर पुरी आये। प्रभु इन्हें सकुशल लौटा हुआ देखकर परम प्रसन्न हुए। इन्होंने सनातन जी की दी हुई सभी चीजें प्रभु के अर्पण कीं। प्रभु ने सभी को श्रद्धापूर्वक सिर पर चढ़ाया। सब चीजें तो प्रभु ने रख लीं, पीलुओं को उन्होंने भक्तों में बाँट दिया। भक्तों ने ‘वृन्दावन के फल’ समझकर उन्हें बड़े आदर से ग्रहण किया। एक तो वृन्दावन के फल फिर महाप्रभु के हाथ से दिये हुए सभी भक्त बड़े चाव से खाने लगे। जो पहले वृन्दावन हो आये थे वे तो जानते थे कि ये अमृतफल किस प्रकार खाये जाते हैं, इसलिये वे तो मुँह में डालकर उनकी गुठलियों को धीरे-धीरे चुसने लगे। जो नहीं जानते थे वे जल्दी में मुँह में डालकर चबाने लगे। चबाते ही मुँह जहर कड़वा हो गया, नेत्रों में पानी आ गया। सभी सी-सी करते हुए इधर-उधर दौड़ने लगे। न तो खाते बनता था। न थूकते ही। वृन्दावन के प्रभुदत्त प्रसाद को भला थूकें कैसे और खाते हैं तो प्राणों पर बीतती है। खैर, जैसे-तैसे जल के साथ भक्त उन्हें निगल गये। प्रभु हँसते-हँसते कह रहे थे- ‘व्रज का प्रसाद पाना कोई सरल नहीं है। जो विषय भोगों को ही सर्वस्व समझ बैठे हैं, उनको न तो व्रज की भूमि में वास करने का अधिकार है और न व्रज के महाप्रसाद को पाने का ही। व्रजवासी बनने का सौभाग्य तो उसे ही प्राप्त हो सकेगा जिसकी सभी वासनाएँ दूर हो गयी होंगी।’ इस प्रकार जगदानन्द जी के आने से सभी भक्तों को बड़ी प्रसन्नता हुई, वे उसी प्रकार सुखपूर्वक फिर प्रभु के पास रहने लगे। जगदानन्द जी का हृदय शुद्ध था, उनका प्रभु के प्रति प्रगाढ़ प्रेम था। वे प्रभु के शरीर से ही अत्यधिक प्रेम करते थे। यह ठीक भी है। जिस कागज पर चित्र बना हुआ है उस कागज को यदि कोई प्यार करता है तो वह एक-न-एक दिन उस पर खिंचे हुए चित्र के सौन्दर्य से भी प्यार करने लगेगा। जो सौन्दर्य को ही सर्वस्व समझकर कागज को व्यर्थ समझकर फेंक देता है तो कागज तो उसके हाथ से चला ही जाता है, साथ ही उसपर खिंचा हुआ चित्र और उसमें का सौन्दर्य भी उसे फिर कभी नहीं मिल सकता। यह हो नहीं सकता कि हम घृत से तो प्रेम करें और जिस पात्र में घृत रखा है उसकी उपेक्षा कर दें। पात्र के साथ घृत का आधाराधेय भाव का सम्बन्ध है। आधेय से प्रेम करने पर आधार से अपने-आप ही प्रेम हो जाता है। आधार का प्रेम ही आधेय के प्रेम को प्राप्त करा सकता है। यही सर्वशास्त्रों का सिद्धान्त है। |