श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी141. श्री सनातन का अदभूत वैराग्य
प्रभु के भिक्षा कर लेने पर तपन मिश्र जी ने प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद सनातन जी को दिया। उस महाप्रसाद को पाते ही सनातन जी ऐसा अनुभव करने लगे कि हमारे सभी पाप प्रत्यक्ष रीति से हमारे शरीर से निकल-निकलकर बाहर जा रहे है। प्रसाद पा लेने के अनन्तर सनातन जी को एक प्रकार की अपूर्व ही प्रसन्नता हुई। इतनी प्रसन्नता पहले उन्हें कभी भी प्राप्त नहीं हुई थी। सनातन जी के प्रसाद पा लेने पर तपन मिश्र अपने घर में से नूतन वस्त्र ले आये और उन्हें हठपूर्वक श्री सनातन जी के शरीर पर पहनाने लगे। सनातन जी उनके पैर पकड़कर अत्यन्त ही करुण स्वर में कहने लगे- ‘मिश्र जी! आप मुझसे आग्रह न करें। मैं जब नूतन वस्त्र नहीं पहनूँगा। यदि आप नहीं मानते हैं तो अपना पहना हुआ कोई पुराना एक वस्त्र मुझे दे दीजिये।’ मिश्र जी विवश हो गये, अन्त में वे अपने घर में से एक पुरानी धोती निकाल लाये। सनातन जी ने उसे पकड़कर दो टुकड़े कर लिये। एक में से तो साफी और लँगोटी बना ली, एक टुकड़े को शरीर से लपेट लिया। अब वे पूरे वैष्णव बन गये। वह महाराष्ट्रीय ब्राह्मण भी आ पहुँचा। श्री सनातन जी का परिचय पाकर उसने उनका निमंत्रण किया। इस पर सनातन जी ने कहा- ‘मैं एक के यहाँ अब भोजन न करूँगा, ब्राह्मणों के घरों से मधुकरी माँगकर ही लाया करूँगा, आपके घर से भी ले आऊँगा, आप मुझसे विशेष आग्रह न करें।’ इस पर फिर किसी ने सनातन जी से आग्रह नहीं किया। वे मधुकरी माँगकर उदरपूर्ति करने लगे। महाप्रभु इनके वैराग्य को देखकर मन-ही-मन बहुत सन्तुष्ट हुए। सनातन जी प्रभु के चरणों के ही समीप रहने लगे। सनातन जी के पास बहनोई का दिया हुआ वह सफेद रंग का कम्बल अभी तक था। वह कम्बल बहुत ही बढिया और मुलायम था। उसकी उन बहुत ही चमकीली और रेशम से भी बढ़िया थी। उसका मूल्य था तीन रुपये। उन दिनों तीन रूपये के कम्बल को बहुत बड़े आदमी ही ओढ़ते थे। आजकल वह तीस-चालीस रुपये का होगा। महाप्रभु बार-बार उस कम्बल की ओर देखते। बुद्धिमान सनातन जी समझ गये कि महाप्रभु को मेरे पास का यह कम्बल भाता नहीं है। वे उसी समय गंगा जी के किनारे गये। वहाँ एक साधु ने अपनी फटी-सी गुदड़ी गंगा जी में धोकर सुखाने डाल दी थी। सनातन जी उसके पास पहुँचकर कहने लगे- ‘भाई। तुम मेरा इतना उपकार करो, मेरे इस कम्बल को ले लो और अपनी यह गुदड़ी मुझको दे दो।’ साधु ने आश्चर्य चकित होकर कम्बल की ओर देखते हुए कहा- ‘महाराज! आप मुझ गरीब से हंसी क्यो करते हैं? मेरी गुदड़ी फट गयी है, कहीं से दूसरी खोजूँगा।’ |