श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी141. श्री सनातन का अदभूत वैराग्य
साधु ने कहा- ‘आप इस इतने कीमती कम्बल को फटी गुदड़ी के बदले में क्यों देना चाहते हैं सनातन जी ने कहा- ‘इसमें एक रहस्य है, तुम मुझे दे दो, मुझे ऐसी ही गुदड़ी की जरूरत है।’ साधु ने प्रसन्नतापूर्वक गुदड़ी दे दी। उसे प्रसन्नतापूर्वक ओढ़े हुए सनातन जी चन्द्रशेखर के घर पहुँचे। सनातन जी पर कम्बल न देखकर प्रभु समझ तो गये कि ये कम्बल को फेंककर कहीं से फटी गुदड़ी ले आये हैं, किन्तु फिर भी अनजान की भाँति पूछने लगे- 'सनातन! तुम्हारा वह कम्बल नहीं दीखता, उसे कहाँ रख दिया?’ कुछ लज्जित भाव से सनातन जी ने कहा- ‘प्रभो! जब आपकी असीम कृपा है, तब विषयरूपी वह कम्बल बच ही कैसे सकता है? वह तो आपकी कृपा के वेग में मेरे पूर्वकृत पापों के सहित बह गया।’ महाप्रभु बड़े सन्तुष्ट हुए और धीरे-धीरे कहने लगे- ‘सनातन जो सद्वैद्य होता है, वह रोगी के अच्छा होने पर भी कुछ दिन और औषधि देता है, थोड़ा भी रोग शरीर में रह जायेगा तो फिर धीरे-धीरे वह बढ़ने लगेगा। इसलिये बुद्धिमान वैद्य रोग के अंश को भी रहने नहीं देता! तुमने सब कुछ त्यागा, तिस पर भी सुन्दर कम्बल की क्षुद्र-सी वासना बनी ही रही। भिक्षा के टुकड़े माँगकर खाना और फिर तीन रूपये का भूटिया कम्बल ओढ़ना- यह शोभा नहीं देता।’ महाप्रभु की अपार अनुकम्पा को स्मरण करके सनातन जी गद्गद हो उठे, उनका गला भर आया, वे प्रभु के पैर पकड़ कर रुदन करने लगे। प्रभु ने उन्हें उठाकर छाती से चिपटा लिया। सभी उपस्थित भक्त श्री सनातन जी के अदभूत वैराग्य की और महाप्रभु की अपार भक्त वत्सलता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। |