श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी140. श्री सनातन की कारागृह से मुक्ति और काशी में प्रभु-दर्शन
उसे डांटते हुए सनातन जी ने कहा- 'धत्तेरे बदमाश की; तेरा लोभ अब भी बना रहा। अभी जाकर इन सबको डाकुओं के सरदार को दे आ।' अपने स्वामी की आज्ञा से ईशान सरदार के पास गया और सात मुहरें रखकर कहने लगा- 'मेरे स्वामी ने ये मुहरें आपके पास भेजी हैं।' हँसकर उसने उत्तर दिया- 'एक तो फिर भी छिपा ही ली, मुझे पहले ही पता चल गया था। अस्तु, मैं तुम्हारे स्वामी की सच्चाई से बहुत प्रसन्न हूँ, ये मुहरें उन्हीं को दे देना।' इतने में ही सनातन जी भी वहाँ आ उपस्थित हुए। सरदार को मुहरों को लौटाते देखकर उन्होंने आग्रह पूर्वक कहा- 'आप इन मुहरों को ले लें। मुझे तो कहीं-न-कहीं फेंकनी ही होगी। मैं तो राजमंत्री-पद को छोड़कर जेल से भाग कर आया हूँ, कृपा करके मुझे उस पार पहुँचा दीजिये।' सरदार ने चार आदमी इनके साथ कर दिये और ये पहाड़ के उस पार हो गये। आगे चलते-चलते सनातन जी ने ईशान से पूछा- 'ईशान! मालूम पड़ता है, अभी तेरे पास कुछ और द्रव्य है?' ईशान ने लज्जित भाव से कहा- 'श्रीमन! मेरे पास एक मुहर और है। तब श्री सनातन जी ने कहा- 'भैया! मुझे अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं। मेरा तुम्हारा अब साथ ही कैसा? तुम अपने घर लौट जाओ।' रोते-रोते ईशान ने अपने स्वामी के पैर पकड़ लिये और उनके बहुत कहने पर वह लौट गया। सनातन जी उसी प्रकार झाड़-झंडकाड़ों में होते हुए हाजीपुर पहुँचे। |