श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी139. रूप की विदाई और प्रभु का काशी-आगमन
श्रीरूप ने हाथ जोड़े हुए दीन भाव से कहा- 'हाँ, प्रभो! श्री चरणों के अनुग्रह से मैं इतना तो समझा कि भक्ति मार्ग की ओर बढ़ने वाले साधक को कामिनी-कांचन और कीर्ति के स्वरूप-पद, प्रतिष्ठा, पैसा, पुत्र, परिवार और यावत प्रेय पदार्थ हैं, उनका परित्याग करके तब इस पथ की ओर अग्रसर होना चाहिये। अब मैं कुछ साधन-तत्त्व समझना चाहता हूँ।' प्रभु ने कहा- रूप! जीव का स्वरूप शास्त्रों में ऐसा बताया है कि बाल के अग्रभाग को लो, उसके सौ टुकड़े करो। उन सौ में से एक को लो, फिर उसके सौ टुकड़े करे। उससे भी सूक्ष्म जीव का स्वरूप है। अर्थात जीव अति सूक्ष्म है। जीव 'इस चराचर विश्व में' समान रूप से व्याप्त है, एक तिल रखने योग्य भी ब्रह्माण्ड में जगह नहीं है, जहाँ जीव न हो। अब जीव के दो भेद हैं- एक जड, दूसरा चेतन अथवा स्थावर-जंगम। पत्थर, लकड़ी आदि स्थावर हैं और हलचल या क्रिया करने वाले जंगम कहाते है। स्थावर से जंगम श्रेष्ठ माने गये हैं। जंगमों में हाथी, घोड़ा आदि समझदार जानवर श्रेष्ठ हैं, उसमें भी मुनष्य श्रेष्ठ है, मनुष्यों में ब्राह्मण और ब्राह्मणों में भी विद्वान, विद्वानों में भी परिष्कृत बुद्धि वाला श्रेष्ठ है और उनमें भी सत-आचरणों को अपने जीवन में परिणत करने वाला कर्ता श्रेष्ठ है और उन कर्ताओं में से भी वह श्रेष्ठ है जिसे ब्रह्मज्ञान हो गया हो। ब्रह्मज्ञानियों में भी जो मुक्त हो गया हो वह श्रेष्ठ है और मुक्तों में भी सर्वश्रेष्ठ श्रीकृष्ण भक्त है। जिसके हृदय में सच्ची कृष्ण भक्ति है उससे बढ़कर श्रेष्ठ कोई हो ही नहीं सकता। श्रेष्ठ पाने की यही पराकाष्ठा है।' जैसे कि श्रीमद्भागवत में कहा है- मुक्तानामपि सिद्धानां नारायणपरायणः। संसार में प्रयत्न करने पर चाहे सब कुछ प्राप्त हो सके, किन्तु श्रीकृष्ण भक्ति का प्राप्त होना अत्यन्त ही दुर्लभ है। बस, भक्ति प्राप्ति का एक ही उपाय है। सब जगह, सब अवस्थाओं में और सर्वकाल में श्री हरि के ही नामों का संकीर्तन करता रहे। श्रवण, कीर्तन ही प्रभु प्रेम प्राप्ति का मुख्य उपाय है और सब उपाय तथा आश्रयों का परित्याग करके श्री हरि की ही शरण लेनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राजा परीक्षित शुकदेव जी से प्रश्न करते हुए कह रहे है- 'हे महामुने! मुक्त हुए सिद्धों में भी नारायण का भक्त दुर्लभ है और उन करोड़ों भक्तों में भी शान्त हृदय का भक्त तो अत्यन्त ही दुर्लभ है।' 6।14।5