श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी132. रघुनाथदास जी को प्रभु के दर्शन
महात्मा रघुनाथदास के पिता होने का लोकविख्यात सौभाग्य इन्हीं श्री गोवर्धनदास जी को प्राप्त हुआ था। बालक रघुनाथदास के पहले से ही बड़े तेजस्वी और होनहार प्रतीत होते थे। अपने कुल में अकेले ही होने के कारण चाचा तथा पिता का इनके ऊपर अत्यधिक स्नेह था। बालकपन से ही इनके स्वभाव में गम्भीरता थी, ये बहुत ही कम बातें करते, कभी किसी से अपशब्द नहीं कहते, बड़ोंके सामने सदा नम्र रहते। राजपुत्र होने के कारण वैसे ही बड़े सुन्दर और कोमलांग थे, फिर इतनी बड़ी नम्रता ने तो सोने में सुगन्ध का काम दिया। जो भी इनकी मोहिनी मूर्ति को देखता वही मुग्ध हो जाता। पिता ने अपने पुत्र को प्रसिद्ध पण्डित बनाने की इच्छा से अपने कुलगुरु बलराम आचार्य के समीप संस्कृत पढ़ने भेजा। विनयी रघुनाथ अपनी पोथियों को स्वयं लेकर आचार्य के घर पढ़ने जाने लगे। उन दिनों महात्मा हरिदास जी आचार्य के घर पर ही रहकर अहर्निश जोर-जोर से भगवन्नामों का उच्चारण किया करते थे। सरल स्वभाव वाले कोमल प्रकृति के रघुनाथदास पर हरिदास जी की धर्मनिष्ठा का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा। वे घंटो एकटक-भाव से हरिदास जी के मुखमण्डल की ओर निहारते और उनके साथ कभी-कभी बेसुध होकर कीर्तन भी करने लगते। हरिदास जी के हृदय में भी बालक रघुनाथदास जी की सरलता और भावुकता ने अपना घर बना लिया। वे मन-ही-मन उस जमींदार के कुमार को प्यार करने लगे। |