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श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी
131. श्री रूप और सनातन
पिता ने अपने तीनों पुत्रों को सुयोग्य पण्डित बनाना चाहा, इसलिये नवहाटी के प्रसिद्ध पण्डित श्रीसर्वानन्द सिद्धान्तवाचस्पति से उन्होंने इन लोगों को संस्कृत की शिक्षा दिलायी। उन दिनों फारसी राजभाषा थी।
राजकीय कामों में फारसी का ही बोलबाला था। फारसी पढ़ा हुआ ही सभ्य और विद्वान समझा जाता था, उसे ही राज्य में बड़ी-बड़ी नौकरियां मिल सकती थी। फारसी पढ़ा-लिखा साधारण काम नहीं कर सकता था। मालूम पड़ता है, जब लोग बहुत अधिक संख्या में फारसी पढ़े-लिखे हो गये और उन की बेकदरी होने लगी तभी यह लोकोक्ति बनी होगी-'पढ़े फारसी बेचे तेल। यह देखो विधना का खेल।।' अस्तु, रूप-सनातन के पूज्य पिता जी ने अपने पुत्रों को संस्कृत के साथ-ही-साथ फारसी का भी पण्डित बनाना चाहा। इसलिये सप्तग्राम के भूम्यधिकारी सैयद फकरउद्दीन से इन लोगों को अरबी-फारसी की शिक्षा दिलायी। ये मेधावी और तीक्ष्णबुद्धि के तो बाल्य काल से ही थे, इसलिये थोड़े ही दिनों में संस्कृत, अरबी और फारसी के अच्छे पण्डित हो गये। उन दिनों मालाधर वंसु (गुणराज खाँ) गौड़ के बादशाह हुसेनशाह के राजमंत्री थे। वे गुणग्राही तथा कविहृदय के थे। उन्होंने 'श्रीकृष्णविजय' नामक एक बँगला काव्य की भी रचना की थी जिसका 'नन्दनन्दन कृष्ण मोर प्राणनाथ' यह पद महाप्रभु को बहुत ही पसंद था। उनसे इन लोगों का परिचय हो गया। वे इनकी कुशाग्रबुद्धि और प्रत्युत्पन्न मति से बहुत ही संतुष्ट हुए और इन्हें राजदरबार में नौकर करा दिया। ये अपनी बुद्धि की तीक्ष्णता और कार्यपटुता के कारण शीघ्र ही बादशाह के परम कृपापात्र बन गये और बादशाह ने प्रसन्न होकर इन्हें अपना राजमंत्री बनाया। पदवृद्धि के साथ इनकी वैभववृद्धि भी हो ने लगी, साथ ही हिन्दु-धर्म की कट्टरता भी कम होने लगी। इन्हें मुसलमानों से कोई परहेज नहीं था। ब्राह्मण होने पर भी इनका खान-पान तथा वेष-भूषा सब मुसलमान रईसों का-साही था। यहाँ तक कि बादशाह ने इनके नाम भी मुसलमानों के-से ही रख दिये।
बादशाह सनातन को 'दबिर खास' और रूप को 'शाकिर मल्लिक' के नाम से पुकारता था। राज्य में ये इन्हीं नामों से प्रसिद्ध थे। इनके पुराने नाम को कोई जानता भी नहीं था। इन्होंने अपने रहने के निमित्त गौड़ के समीप ही राम केलि नाम से एक नया नगर बसाया और उसी में अपना सुन्दर-सा महल बनाकर खूब ठाट-बाट के साथ रहते थे। इनके आचरण चाहे कैसे भी हों, किन्तु ये संस्कृत के विद्वान पण्डितों को तथा साधु-वैष्णवों का सदा सम्मान करते रहते थे। राम केलि से थोड़ी दूर पर इन्होंने 'कन्हाई नाटशाला' नाम से एक मूर्ति-संग्रहालय बनवाया था। उसमें श्रीकृष्ण की लीला-सम्बन्धी अनेक प्रकार की बहुत-सी मूर्तियाँ थीं। उनमें से कुछ तो अब तक भी विद्यमान हैं।
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