श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी15. चांचल्य
एक दिन माता ने भोजन बनाकर तैयार कर लिया, किन्तु विश्वरूप अभी तक पाठशाला से नहीं आये। वे श्री अद्वैताचार्य की पाठशाला में पढ़ते थे। आचार्य की पाठशाला मिश्र जी के घर से थोड़ी दूर गंगा जी की ओर थी। माता ने निमाई से कहा- ’बेटा निमाई! देख तेरा दादा अभी तक भोजन करने नहीं आया। जाकर उसे पाठशाला में से बुला तो ला।’ बस, इतना सुनना था कि ये नंगेवदन ही वहाँ से पाठशाला की ओर चल पड़े। शरीर की कान्ति तपाये हुए सुवर्ण की भाँति सूर्य के प्रकाश के साथ मिलकर झलमल-झलमल कर रही थी। गौरवर्ण शरीर पर स्वच्छ साफ धोती बड़ी ही भली मालूम पड़ती थी। निमाई आधी धोती ओढ़े हुए थे। उनके बडे़-बड़े विकसित कमल के समान सुन्दर और स्वच्छ नेत्र मुखचन्द्र की शोभा को द्विगुणित कर रहे थे। आचार्य के सामने हँसते-हँसते इन्होंने भाई से कहा 'दद्दा! चलो भात तैयार है, अम्मा तुम्हें बुला रही हैं।’ विश्वरूप ने निमाई को गोद में बिठा लिया और स्नेह से बोले- ’निमाई! आचार्य देव को प्रणाम करो’ यह सुनकर निमाई कुछ लजाते हुए मुसकराने लगे। वे लज्जा के कारण भाई विश्वरूप की गोद में छिपे-से जाते थे। आचार्य से आज्ञा लेकर विश्वरूप घर चलने को तैयार हुए। निमाई विश्वरूप का वस्त्र पकड़े उनके पीछे खड़े हुए थे। आचार्य ने निमाई को खूब ध्यान से देखा। आज पहले-ही-पहले उन्होंने निमाई को भलीभाँति देखा था। देखते ही उनके सम्पूर्ण शरीर में बिजली-सी दौड़ने लगी। उन्हें प्रतीत होने लगा कि मैं इतने दिन से जिन भवभयहारी जनार्दन की उपासना कर रहा हूँ, वे ही जनार्दन साकार बनकर बालक-रूप में मुझे अभय प्रदान करने आये हैं। उन्होंने मन-ही-मन निमाई के पादपद्मों में प्रणाम किया और अपने भाव को दबाते हुए बोले- 'विश्वरूप! यह तुम्हारे भाई हैं न?’ विश्वरूप ने नम्रता पूर्वक कहा- 'हाँ, आचार्य देव! यह मेरा छोटा अनुज है। बड़ा चंचल है, आपके सामने यह ऐसे चुपचाप भोले बालक की भाँति खड़ा है, आप इसे गंगा-किनारे या घर पर देखें तब पता चले कि यह कितना कौतुकी है। संसार को उलट-पलट कर डालता है। माता तो इससे तंग हो जाती हैं।’ आचार्य यह सुनकर हँसने लगे। निमाई विश्वरूप की आड़ में से छिपकर आचार्य की ओर देखने लगे। विश्वरूप का वस्त्र पकड़कर जाते-जाते दो-तीन बार निमाई ने फिर-फिर आचार्य की ओर देखा। आचार्य चेतना-शून्य-से हो गये। वे ठीक-ठीक न समझ सके कि हमारे चित्त को यह बालक हठात अपनी ओर क्यों आकर्षित कर रहा है। अन्त में ये ही आचार्य गौरांगदेव के मुख्य पार्षद हुए, जिनके द्वारा गौरांग अवतारी माने जाने लगे। इसलिये अब यह जान लेना जरूरी है कि ये अद्वैताचार्य कौन थे और इनकी पाठशाला कैसी थी? |