श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी125. प्रकाशानन्द जी के साथ पत्र-व्यवहार
श्रीचैतन्य नारायण करुणासागर। इस पद की रचना करके सभी भक्तों से उन्होंने इस ताल-स्वर में गवाया। सभी भक्त प्रेम में विभोर होकर इस पद का संकीर्तन करने लगे। महाप्रभु भी कीर्तन की उल्लासमय आनन्दमय सुमधुर ध्वनि सुनकर वहाँ आ पहुँचे। जब उन्होंने अपने नाम का कीर्तन सुना तब तो वे उलटे पैरों ही लौट पड़े। पीछे कुछ प्रेमयुक्त क्रोध प्रकट करते हुए महाप्रभु श्रीवास पण्डित से कहने लगे- 'आपलोग यह क्या अनर्थ कर रहे हैं, कीर्तनीय तो वे ही श्रीहरि हैं, उनके कीर्तन को भुलाकर अब आपलोग ऐसा आचरण करने लगे हैं, जिससे लोगों में मेरा अपयश हो और परलोक में मैं पाप का भागी बनूँ' इतनेमें ही कुछ गौड़ीय भक्त संकीर्तन करते हुए जगन्नाथ जी के दर्शनों से लौटकर प्रभुके दर्शनों के लिये आ रहे थे। वे जोरों से 'जय चैतन्य की' 'जय सचल जगन्नाथ की' 'जय संन्यासी-वेषधारी कृष्ण की' आदि जय-जयकार करते आ रहे थे। तब श्रीवास ने कहा- 'प्रभो! हमें तो आप जो आज्ञा देंगे वही करेंगे। किन्तु हम संसार का मुख थोड़े ही बंद कर सकते हैं। आप ही बतावें इन्हें किसने सिखा दिया है ?' इससे महाप्रभु कुछ लज्जित-से होकर चुपचाप बैठे रहे, उन्होंने इस बात का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। पीछे ज्यों-ज्यों लोगों का उत्साह बढ़ता गया, त्यों-त्यों भगवान के नामों के साथ निताई-गौर का नाम भी जुड़ता गया। पीछे से तो निताई-गौर का ही कीर्तन प्रधान बन गया। अधिकांश भक्तों का भाव इनके प्रति सचमुच ईश्वरप ने का था। इतने पर भी ये सावधान ही बने रहते। अपने को सदा दासानुदास ही समझते और कभी किसी के सामने अपनी भगवत्ता स्वीकार नहीं करते। इनके भक्त भिन्न-भिन्न प्रकृति के थे। बहुत-से तो इन्हें वात्सल्य भाव से ही प्यार करते, ये भी उन्हें सदा पितृभाव से पूजते तथा मानते थे। दामोदर पण्डित से तो पाठक परिचित ही होंगे। प्रभु ने उन्हें घर पर माता की सेवा-शुश्रूषा के निमित्त नवद्वीप भेज दिया था। एक बार जब वे पुरी में प्रभु से मिलने आये तो वैसे ही बातों-ही-बातोंमें माता का कुशल समाचार पूछते-पूछते प्रभु ने कहा- 'पण्डित जी! माता कृष्ण-भक्ति करती हैं न ?' बस फिर क्या था, दामोदर पण्डित का क्रोध आवश्यकता से अधिक बढ़ गया। वे माता के चरणों में बड़ी श्रद्धा रखते थे और स्पष्ट वक्ता ऐसे थे कि प्रभु का जो भी कार्य उन्हें अशास्त्रीय या अनुचित प्रतीत होता उसे उसी समय सबके सामने ही कह देते। प्रभु के ऐसा पूछने पर उन्होंने रोष के साथ कहा- 'प्रभो! माता की भक्ति के सम्बन्ध में आप पूछते हैं ? तो सच्ची बात तो यह है कि आप में जो कुछ थोड़ी-बहुत भगवद्-भक्ति दीखती है, यह सब माता की ही कृपा का फल है।' |