श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी110. नौरो जी डाकू का उद्धार
प्रभु ने उसकी ऐसी आर्तवाणी सुनकर कहा- ‘नौराजी ! तुम बड़े ही भाग्यशाली हो, जो इस वृद्धावस्था में तुमको निर्वेद हुआ। श्रीकृष्ण कीर्तन ही संसार में सार है। ये धन रत्न तो सभी नश्वर और क्षणभंगुर हैं। तुम घबड़ाओ मत, भगवान तो प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि चाहे कोई कितना भी बड़ा दुराचारी क्यों न हो, यदि वह अनन्यभाव से मुझे भजता है, तो उसे साधु ही मानना चाहिये। दयालु श्री हरि ने तुम्हारे ऊपर परम कृपा की जो तुम्हें सदबुद्धि प्रदान की, अब तुम निरन्तर हरि नाम कीर्तन ही किया करो।’ ऐसा उपदेश करके प्रभु ने उसे महामन्त्र की दीक्षा दी। प्रात:काल उठकर प्रभु ने चलने को तैयार हुए तो नौराजी ने भी अपने सभी अस्त्र-शस्त्र फेंक दिये और अपने दल के सब आदमियों को बुलाकर वह गदगद कण्ठ से कहने लगा- ‘भाइयो ! हम सब इतने दिन साथ रहे, तुम्हें मैं समय समय पर उचित-अनुचित आज्ञा देता रहा और तुमने भी प्राणों की कुछ भी परवा न करके मेरी समस्त आज्ञाओं का पालन किया। साथ में रहने से और नित्य के व्यवहारों से गलती और अपराधों का होना स्वाभाविक ही है; इसलिये भाई ! मुझसे जिसका भी अपकार हुआ हो, वह मुझे सच्चे हृदय से क्षमा कर दे। अब मैं अपने भगवान की शरण में जा रहा हूँ। |