श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी109. दक्षिण के शेष तीर्थों में भ्रमण
इस बात को सुनकर प्रभु कुछ विस्मित से हो गये। उनके दोनों स्वच्छ और बड़े बड़े कमल के समान नेत्रों में आप से आप ही जल भर आया। रुँधे हुए कण्ठ से उन्होंने कहा- ‘भगवन ! वे महाभाग शंकरारण्य स्वामी मेरे पूर्वाश्रम के अग्रज थे।’ इस बात को सुनते ही पुरी महाराज ने प्रभु का फिर आलिंगन किया और कहने लगे- ‘क्या आप सब के सब संन्यासी ही हो गये या घर पर कोई और भी भाई है?’ प्रभु ने नीचे को सिर करके धीरे से कहा- ‘घर पर तो वे ही श्रीहरि हैं, जिनका आपने पहले नाम लिया। मेरे पूर्वाश्रम के पिता तो परलोकवासी हो गये। हम दो ही भाई थे, सो दोनों ही आपके चरणों की शरण में आ गये। अब घर पर वृद्धा माता ही है।’ पुरी ने कहा- ‘भाई आपका ही कुल धन्य हैं, आपके ही माता पिता का पुत्र उत्पन्न करना सार्थक हुआ।’ इस प्रकार दोनों में और भी परमार्थ सम्बन्धी बहुत सी बातें होती रहीं। दो तीन दिन तक दोनों ही साथ साथ रहे। अन्त में पुरी महाराज तो द्वारिका के लिये चले गये और महाप्रभु श्री विठ्टलनाथ जी के दर्शन करके आगे बढ़े।’ पण्ढरपुर में भीमा नदी में स्नान करके महाप्रभु कृष्णवीणा नदी के किनारे आये। वहाँ ब्राह्मणों के समीप से प्रभु ने श्रीविल्वमंगलकृत ‘कृष्णकर्णामृत’ नामक अपूर्व रसमय ग्रन्थ का संग्रह किया। ब्रह्मसंहिता और कृष्णकर्णामृत इन दोनों पुस्तकों को यत्नपूर्वक साथ लिये हुए प्रभु ताप्ती नदी के निकट आये। वहाँ पुण्यतोया ताप्तीनदी में स्नान करके महिष्मतीपुर होते हुए वे नर्मदा जी के किनारे आये, वहाँ ऋष्यमूक पर्वत को देखते हुए, दण्डकारण्य के समस्त तीर्थों को पावन करते हुए सप्तलाल तीर्थ का उद्धार किया। महाप्रभु ने नीलगिरी प्रदेश में भ्रमण करते समय असंख्य लोगों को श्रीकृष्ण प्रेम में उन्मत्त बनाया। इसी प्रकार भ्रमण करते हुए गुर्जरी नगर में आकर उपस्थित हुए। यहाँ पर एक अर्जुन नाम के शुष्क वेदान्ती पण्डित को प्रभु ने श्रीकृष्ण तत्त्व समझाया और उसे प्रेम प्रदान किया। |