श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी13. बाल्य-भाव
आपने भोली सूरत बनाकर कहा- ‘अम्मा! तैने भी तो मुझे मिट्टी लाकर दी है। मिट्टी ही मैं खा रहा हूँ’। माता ने कहा- ‘मैंने तो तुझे दूध-चिउरा दिया है, उसे न खाकर तू मिट्टी खा रहा है।’ आपने कहा- ‘माँ! यह सब मिट्टी ही तो है। सभी पदार्थ मिट्टी के ही विकार हैं।’ माता इस मूढ़ ज्ञान को समझ गयी। पुचकारकर बोलीं- ‘बेटा! है तो सब मिट्टी ही किन्तु काम सबका अलग-अलग है। घड़ा भी मिट्टी है, रेत भी मिट्टी है। घडे़ में पानी भरकर लाते हैं, तो वह रखा रहता है और रेत में पानी डालें तो वह सूख जायगा। इसलिये सबके काम अलग-अलग हैं।’ आपने मुँह बनाकर कहा- ‘हाँ, ऐसी बात है? तब हमें तैंने पहले से क्यों नहीं बताया, अब ऐसा न किया करेंगे। अब कभी मिट्टी न खायेंगे। भूख लगने पर तुझसे ही माँग लिया करेंगे।’ इस प्रकार भाँति-भाँति की क्रीड़ाओं के द्वारा निमाई माता को दिव्य सुख का आस्वादन कराने लगे। माता इनकी भोली और गूढ़ ज्ञान से सनी हुई बातें सुन-सुनकर कभी तो आश्चर्य करने लगतीं, कभी आनन्द के सागर में गोता लगाने लगतीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |