श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी102. वासुदेव कुष्ठीका उद्धार
प्रभु ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा- ‘विप्रवर ! आप जैसी बातें कर रहे हैं। ब्राह्मण तो साक्षात श्रीहरि के मुख हैं, आप-जैसे विनयी वैष्णव ब्राह्मण का आतिथ्य ग्रहण करने में तो मैं अपना अहोभाग्य समझता हूँ। जो भगवद भक्त है, साधु-संतों में श्रद्धा रखते हैं, जिन्हें अतिथियों की सेवा करने में सुख प्रतीत होता है, ऐसे भक्तों के घर का प्रसादान्न ग्रहण करने से अतिथि भी पवित्र बन जाता है। ऐसे आतिथ्य से अतिथि और आतिथ्य करने वाला दोनों ही धन्य हो जाते हैं। इसलिये मैं आपका आतिथ्य अवश्य ही ग्रहण करूँगा।’ प्रभु के मुख से निमन्त्रण की स्वीकृति सुनकर वह ब्राह्मण आनन्द के कारण व्याकुल-सा हो उठा। वह उसी समय अस्त-व्यस्त भाव से अपने घर गया और अपनी ब्राह्मणी से कहकर उसने महाप्रभु के लिये भाँति-भाँति के उत्तमोत्तम पदार्थ बनवाये। पतिप्राणा सती-साध्वी ब्राह्मणी ने बात-की-बात में नाना भाँति के व्यंजन बनाकर पति से प्रभु को बुला लाने का अनुरोध किया। भोजनों को तैयार देखकर ब्राह्मण जल्दी से प्रभु को बुला लाया। घर पर आते ही उसने हाथों से प्रभु के पादपद्मों को पखारा और उस पादोदक को स्वयं पान किया तथा परिवार भर को पिलाया। इसके अनन्तर सुन्दर से आसन पर प्रभु को बिठाकर धीरे-धीरे भगवान का प्रसाद ला-लाकर प्रभु के सामने रखने लगा। उस प्रेम में पगे हुए भाँति-भाँति के सुन्दर सुस्वादु पदार्थों को देखकर और उनके ऊपर सुन्दर तुलसी मंजरी का अवलोकर करके प्रभु अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और श्रीहरि का स्मरण करते हुए उन्होंने प्रसाद पाया। |