श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी100. दक्षिण यात्रा का विचार
जब उसके असह्य तेज को सहने करने में असमर्थ हो जाते हैं तो अन्त में उन्हें उसकी प्रतिष्ठा करने के लिये विवश हो जाना पड़ता है और फिर वे उसकी पूजा-प्रतिष्ठा और प्रशंसा किये बिना रह ही नहीं सकते। महाप्रभु जनसंसद से पृथक एकान्त में, बिना किसी प्रदर्शन के गोप्य भाव से भक्तों के सहित रहते थे। किन्तु कूड़े के अंदर छिपी हुई अग्नि कब तक प्रकट रह सकती है? धीरे धीरे लोग महाप्रभु के दर्शनों के लिये आने लगे। तभी महाप्रभु ने दक्षिण देश के तीर्थों में परिभ्रमण करने का विचार किया। उनकी इच्छा थी कि संन्यासी के धर्म के अनुसार हमें कुछ काल तक देश विदेशों में भ्रमण करना चाहिये। यही प्राचीन ऋषि महर्षियों का सनातन आचार है। यह सोचकर प्रभु ने अपनी इच्छा भक्तों पर प्रकट की। सभी प्रभु के इस निश्चय को सुनकर अवाक रह गये। उनमें से नित्यानन्द जी बोल उठे- ‘प्रभो ! आप तो निश्चय करके आये थे कि हम नीलाचल में ही रहेंगे। सभी भक्तों को भी आप इसी प्रकार का आश्वासन दे आये थे, किन्तु अब आप यह कैसी बातें कर रहे हैं? आपके सभी कार्य अलौकिक होते हैं। आप क्या करना चाहते हैं, इसे कोई नहीं जान सकता। आपके मनोगत भावों को समझ लेना मानवीय बुद्धि के परे की बात है। आप सर्वसमर्थ हैं, जो चाहें सो करें, किन्तु पुरी जैसे परम पावन क्षेत्र को परित्याग करके आप दक्षिण की ओर क्यों जाना चाहते हैं?’ |