श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी92. श्रीसाक्षिगोपाल
विश्वासी युवक ने पंचों से इस बात पर हस्ताक्षर करा लिये तथा पुत्रसहित उस वृद्ध ब्राह्मण के भी हस्ताक्षर ले लिये कि यदि गोपाल साक्षी देने आ जायँगें, तो हम अवश्य इनका विवाह कर देंगे। सबसे लिखवाकर वह सीधा वृन्दावन पहुँचा और वहाँ जाकर उसने बड़ी ही दीनता के साथ कातरवाणी में गोपाल जी से प्रार्थना की। भक्त के आर्तनाद को सुनकर भगवान प्रकट हुए और उससे कहा- ‘तुम चलो, मैं वही प्रकट होकर तुम्हारी साक्षी दूँगा।’ युवक ने कहा- ‘भगवन् ! ऐसे काम नहीं चलेगा। पता नहीं, आप किस रुप से प्रकट हों और उन लोगों को उस पर विश्वास हो या न हो। इसलिये आप इसी प्रतीमा के रुप से मेरे साथ चलें।’ भगवान ने हंसकर कहा- ‘कहीं पत्थर की प्रतीमा भी चलती है? यह एकदम असम्भव बात है।’ युवक भक्त ने कहा- ‘प्रभो ! आपके लिये कुछ भी असम्भव हो !’ आपको इसी रूप से मेरे साथ चलना होगा।’ भगवान तो भक्तों के अधीन हैं, उन्होंने स्वीकार कर लिया और कहने लगे- ‘तुम आगे-आगे चलो, मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चलूँगा। तुम पीछे फिरकर मेरी ओर न देखना। जहाँ तुम पीछे फिरकर देखोगे, मैं वहीं स्थिर हो जाऊँगा।’ भक्त ने कुछ जोर देकर कहा- ‘तब मुझे कैसे पता चलेगा कि आप मेरे पीछे आ ही रहे हैं? कहीं बीच में से ही लौट पड़े तब ?’ भगवान ने हंसकर कहा-‘तुम्हें पीछे से बजती हुई मेरे पैरों की पैंजनी की आवाज सुनायी देती रहेगी, उसी से तुम समझ लेना कि मैं तुम्हारे साथ आ रहा हूँ।’ भक्त ने इस बात को स्वीकार किया और वह आगे-आगे चलने लगा, पीछे से उसे भगवान के पैरों से बजते हुए नुपूरों की ध्वनि सुनायी देती थी, इसी से उसे पता रहता था कि भगवान मेरे पीछे-पीछे आ रहे हैं। रास्ते में विविध प्रकार के भोजन बनाकर भगवान का भोग लगाता हुआ वह विद्यानगर के समीप आ गया। नगर के समीप आने पर उस से रहा न गया। उसने सोचा- ‘एक बार देख तो लूँ भगवान मेरे पीछे हैं या नहीं। यह सोचकर उसने पीछे को दृष्टि फिरायी। वहीं हंसकर भगवान खड़े हो गये और प्रसन्नता प्रकट करते हुए बोले- ‘अब मैं यही रहूँगा। यहीं से तुम्हारी साक्षी दूँगा। तुम उन लोगों को यहीं बुला लाओ।’ |