श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी92. श्रीसाक्षिगोपाल
घर में पुत्र, पुत्रवधू, स्त्री तथा एक अविवाहित छोटी कन्या थी। ब्राह्मण की इच्छा तीर्थ यात्रा करने की हुई। उस वृद्ध ब्राह्मण के समीप ही एक गरीब ब्राह्मण का लड़का रहता था। उसके माता-पिता उसे छोटा ही छोड़कर परलोकवासी हो गये थे। जिस किसी प्रकार मेहनत-मजूरी करके वह अपना निर्वाह करता था। किन्तु उसके हृदय में भगवान के प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। वह एकान्त में सदा भगवान का भजन किया करता था। इस कारण उस पर भगवान की कृपा थी। भगवान की कृपा की सबसे मोटी पहचान यही है कि जिसे ब्राह्मणों में, तीर्थों में, भगवत-चरित्रों में, देवस्थानों में, भगवत्प्रतिमाओं में, गौओं में, तुलसी-पीपल आदि पवित्र वृक्षों में श्रद्धा हो, इन सबके प्रति हार्दिक अनुराग हो, उसे ही समझना चाहिये कि वह भगवत-कृपा का पात्र बन चुका है। उस ब्राह्मण कुमार का इन सबके प्रति अनुराग था, इसीलिये वह वृद्ध ब्राह्मण इस लड़के पर स्नेह करता था। एक दिन उस वृद्ध ब्राह्मण ने इस युवक से कहा-‘भाई ! यदि तुम्हारी इच्छा हो तो चलो तीर्थ यात्रा कर आवें। गृहस्थी के जंजाल से कुछ दिन के लिये तो छूट जायँ।’ प्रसन्नता प्रकट करते हुए युवक ने कहा- ‘इससे बढ़कर उत्तम बात और हो ही क्या सकती है? तीर्थ यात्रा का सुयोग तो किसी भाग्यवान पुरुष को ही प्राप्त हो सकता है। मैं आपके साथ चलने के लिये तैयार हूँ।’ अपने मन के योग्य साथी पाकर वह वृद्ध ब्राह्मण बहुत ही प्रसन्न हआ और उस युवक को साथ लेकर तीर्थ यात्रा के लिये घर से निकल पड़ा। दोनों ही गया, काशी, प्रयाग, अयोध्या, नैमिषारण्य, ब्रह्मावर्त आदि तीर्थ स्थानों के दर्शन करते हुए व्रजमण्डल में पहुँचे। वहाँ पर इन्होंने भद्रवन, विल्ववन, लोहवन, भाण्डीवन, महावन, मधुवन, तालवन, बहुलावन, काम्यवन, खदिरवन और श्रीवृन्दावन आदि बारह वनों तथा उपवनों की यात्रा की। व्रज के नंदगाँव, बरसाना, गोवर्धन आदि सभी तीर्थों के दर्शन करते हुए इन लोगों ने वृन्दावन में आकर कुछ दिन विश्राम किया। उस छोटे ब्राह्मणकुमार ने सम्पूर्ण यात्रा में उस वृद्ध ब्राह्मण की बड़े ही नि:स्वार्थभाव से सब प्रकार की सेवा-शुश्रूषा की। वह वृद्ध ब्राह्मण इस युवक की सेवा-शुश्रूषा से बहुत ही अधिक सन्तुष्ट हुआ। उसने गोपाल जी के मन्दिर में कृतज्ञता प्रकट करते हुए उस ब्राह्मण कुमार से कहा- ‘भाई ! तुमने हमारी ऐसी अद्भुत सेवा की है कि ऐसी सेवा पुत्र अपने पिता की भी नहीं कर सकता। मैं इस कृतज्ञता के बोझ से दबा-सा जा रहा हूँ, मैं सोच रहा हूँ, इसके बदले में मैं तुम्हारा क्या उपकार करूँ?’ |