श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी86. माता को संन्यासी पुत्र के दर्शन
बीच-बीच में आचार्य देव नित्यानन्द जी से विनोद भी करते जाते थे। आचार्य देव कहने लगे- ‘अवधूत महाराज! आपका पेट भर देना तो अत्यन्त ही कठिन है, क्योंकि आप अगस्त्य जी से कुछ कम नहीं हैं, किन्तु देखना उच्छिष्ट न रहने पावे।’
नित्यानन्द जी कहते- ‘उच्छिष्ट क्यों रहेगा, परोसते जाओ आज ही तो बहुत दिनों में भोजनों का सुयोग प्राप्त हुआ है। आज ऐसे ही थोडे़ उठकर जाऊँगा। आज तो खूब भरपेट भोजन करूँगा।’ आचार्य बनावटी दीनता दिखाकर हाथ जोडे़ हुए बोले- ‘दया करो बाबा! आपका पेट भरना सहज काम नहीं है। मैं ठहरा गरीब ब्राह्मण! मैं कहाँ से आपके लिये इतना अन्न लाऊंगा? मुट्ठी-दो-मुट्ठी जो कुछ रुखा-सूखा अन्न है उसे ही खाकर सन्तुष्ट हो रहो।’ इस प्रकार आचार्य और नित्यानन्द जी में परस्पर विनोद की बातें होती जाती थीं। प्रभु दोनों के प्रेम-कलह को देखकर खूब हंसते जाते थे। इस प्रकार आचार्यदेव की इच्छा के अनुसार प्रभु ने खूब पेटभर भोजन किया। नित्यानन्द जी ने भी अन्य दिनों की अपेक्षा दुगुना-तिगुना भोजन किया। और अन्त में एक मुट्ठी चावल अपनी थाली में से लेकर आचार्य के ऊपर फेंकते हुए कहने लगे- ‘लो, अब आपके ऊपर दया करके उठ पड़ता हूँ, वैसे पेट तो मेरा अभी भरा नहीं है।’ नित्यानन्द जी ने कहा- ‘उच्छिष्ट-स्पर्श से पाप नहीं हुआ है, विष्णु भगवान के प्रसाद में उच्छिष्ट-भावना रखने का पाप हुआ है। सो इसका यही प्रायश्चित है कि पचास संन्यासी महात्माओं को भोजन कराइये और उनमें मैं अवश्य रहूँ।’ |