श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी79. परम सहृदय निमाई की निर्दयता
वे सोचने लगे- ‘मैं इस अबोध बालिका के ऊपर यह कैसा अनर्थ कर रहा हूँ। इसे बिना सूचित किये हुए इसकी बेहोशी में मैं इसे सदा के लिये त्याग रहा हूँ। यह मेरा काम बड़ा ही कठोर और निन्दनीय है।’ फिर अपने को सावधान करके वे सोचने लगे- ‘जीवों के कल्याण के निमित्त ऐसी कठोरता मुझे करनी ही पड़ेगी। जब एक ओर से कठोर न बनूँगा तो संसार का कल्याण कैसे होगा? माया में बंधे हुए जीवों को त्याग-वैराग्य का पाठ कैसे पढा़ सकूंगा? लोग मेरे इसी कार्य से तो त्याग-वैराग्य की शिक्षा प्राप्त कर सकेंगें।’ इतना सोचकर वे मन-ही-मन विष्णुप्रिया जी को आशीर्वाद देते हुए शयन-घर से बाहर हुए। दरवाजे पर शचीमाता बेहोश-सी पड़ी रुदन कर रही थीं। उनकी आँखों में भला नींद कहाँ? वे तो पुत्र-विछोहरूपी शोक-सागर में डुबकियाँ लगा रहीं थीं। कभी ऊपर उछल आतीं और कभी फिर जल में डुबकियाँ लगाने लगतीं। प्रभु ने बेहोश पड़ी हुई दु:खिनी माता के चरणों में मन-ही-मन प्रणाम किया। धीरे से उनकी चरण-धूलि उठाकर मस्तक पर चढा़यी, फिर उनकी प्रदक्षिणा की और मन-ही-मन प्रार्थना की- ‘हे माता! तुमने मेरे लिये बड़े-बड़े़ कष्ट उठाये। मुझे खिला-पिलाकर, पढा़-लिखाकर इतना बड़ा किया। फिर भी मैं तेरी कुछ भी सेवा नहीं कर सका। माता! मैं तुम्हारा जन्म-जन्मान्तरों तक ऋणी रहूँगा, तुम्हारे ऋण से कभी भी मुक्त नहीं हो सकूंगा।’ इतना कहकर वे जल्दी से दरवाजे के बाहर हुए और दौड़कर गंगा-किनारे पहुँचे। |