श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी72. क़ाज़ी की शरणागति
श्रीधर को अपने पैरों के पास पड़ा देखकर प्रभु उससे प्रेमपूर्वक कहने लगे- ‘श्रीधर! हम तुम्हारे घर आये हैं, कुछ खिलाओगे नहीं?’ बेचारा गरीब-कंगाल सोचने लगा ‘हाय! प्रभु तो ऐसे असमय में पधारे है कि इस दीन-हीन कंगाल के घर में दो मुट्ठी चबेना भी नहीं। अब प्रभु को क्या खिलाऊं।’ भक्त यह सोच ही रहा था कि उसके पास के ही फूटे लोहे के पात्र में रखे हुए पानी को उठाकर प्रभु कहने लगे- ‘श्रीधर! तुम सोच क्या रहे हो। देखते नहीं हो, अमृत भरकर तो तुमने इस पात्र में ही रख रखा है।’ यह कहते-कहते प्रभु उस समस्त जल को पान कर गये। श्रीधर रो-रोकर कह रहा था- ‘प्रभो! यह जल आपके योग्य नहीं है, नाथ! इस फूटे पात्र का जल अशुद्ध है।’ किंतु प्रभु कब सुनने वाले थे। उनके लिये भक्त की सभी वस्तुएँ शुद्ध और परम प्रिय हैं। उनमें योग्यायोग्य और अच्छी-बुरी का भेदभाव नहीं। सभी भक्त श्रीधर के भाग्य की सराहना करने लगे और प्रभु की भक्त वत्सलता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। श्रीधर भी प्रेम में विह्वल होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। काजी यहाँ तक प्रभु के साथ-ही-साथ आया था। अब प्रभु ने उससे लौट जाने के लिये कहा। वह प्रभु के प्रति नम्रतापूर्वक प्रणाम करके लौट गया। उस दिन से उसने ही नहीं, किंतु उसके सभी वश के लोगों ने संकीर्तन का विरोध करना छोड़ दिया। नवद्वीप में अद्यावधि चाँदखाँ क़ाज़ी का वश विद्यमान हैं क़ाज़ी के वश के लोग अभी तक श्रीकृष्ण-संकीर्तन में योगदान देते हैं। वेलपुकर या ब्राह्मणपुकर-स्थान में अभी तक चाँदखाँ क़ाज़ी की समाधि बनी हुई है। उस महाभागवत सौभाग्यशाली क़ाज़ी की समाधि के निकट अब भी जाकर वैष्णवगण वहाँ की धूलि को अपने मस्तक पर चढा़कर अपने को कृतार्थ मानते हैं। वह प्रेम-दृश्य उसकी समाधि के समीप जाते ही भावुक भक्तों के हृदयों में सजीव होकर ज्यों-का-त्यों ही नृत्य करने लगता है। धन्य है महाप्रभु गौरांगदेव के ऐसे प्रेम को, जिसके सामने विरोधी भी नतमस्तक होकर उसकी छत्र-छाया में अपने को सुखी बनाते हैं और धन्य है ऐसे महाभाग क़ाज़ी के जिसे मामा कहकर महाप्रभु प्रेमपूर्वक गाढालिंगन प्रदान करते हैं। |