श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
देवानंद विरक्त थे, विद्वान थे, शास्त्रज्ञ थे, फिर भी उन्होंने प्रभु के क्रोधयुक्त वचनों का कुछ भी उत्तर नहीं दिया। भगवत्कृपा से उनकी बृद्धि शुद्ध हो गयी। उन्हें अपनी भूल का अनुभव होने लगा। वे प्रभु के शरणापन्न हुए और उन्होंने अपने पूर्व के भूल तथा अज्ञान में किये जाने वाले उपराध के लिए श्रीवास पण्डित से क्षमा याचना की। जब प्रभु की उनके ऊपर कृपा हो गयी, तब उनके भगवद्भक्त होने में क्या देर थी। वे उस दिन से परमभक्त बन गये। प्रभु अपने भक्तों को भजन की प्रणाली और भजन किस प्रकार के बनकर करना चाहिये इसकी शिक्षा सदा दिया करते थे। एक दिन आप भक्तों को भगवन्नाम का माहात्म्य बता रहे थे। माहात्म्य बताते हुए उन्होंने कहा- ‘भक्त को अपने लिये तृण से भी नीचा समझना चाहिये और वृक्षों से भी अधिक सहनशील। स्वयं तो कभी मान की इच्छा करे नहीं, किंतु दूसरों को सदा सम्मान प्रदान करते रहना चाहिये। इस प्रकार होकर निरन्तर भगवन्नामों का ही चिंतन-स्मरण करते रहना चाहिये। सबसे अधिक सहनशीलता पर ध्यान देना चाहिये। जिसमें सहनशीलता नहीं, वह चाहे कितना भी बड़ा विद्वान, तपस्वी और पण्डित ही क्यों न हो, कभी भी भगवत्कृपा का अधिकारी नहीं बन सकता। सहनशीलता का पाठ वृक्षों से लेना चाहिये। वृक्ष किसी से कटु वचन नहीं बोलते, उन्हें जो ईंट-पत्थर मारता है तो उस पर रोष न करके उलटे प्रहार करने वाले को पके हुए फल ही देते हैं। भूख-प्यास लगने पर भोजन तथा जल की याचना नहीं करते। सदा एकांत में ही रहते हैं। इसी प्रकार भक्त को जनसंसद से पृथक रहकर किसी से किसी बात की याचना न करते हुए अमानी और सहनशील बनकर भगवत-चिंतन करते रहना चाहिये।‘ इसके अनन्तर आपने- इस श्लोक की व्याख्या भक्तों को बतायी। तीन बार मना करने से यह अभिप्राय है कि कलियुग में इससे सरल और सुगम उपाय कोई दूसरा है ही नहीं। एक हृदयहीन जड़-बुद्धि वाला विद्यार्थी भी प्रभु की इस व्याख्या को सुन रहा था। उसने कहा- ‘यह तो सब शास्त्रों में अर्थवाद है। नामकी प्रशंसा में वैसे ही बहुत-सी चढ़ा-बढ़ाकर बातें कह दी हैं। वास्तव में कोरे नाम से कुछ नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कलियुग में केवल हरिनाम ही सार है, जीवों के उद्धार के निमित्त भगवन्नाम को छोड़कर कलिकाल में दूसरा कोई और सुगम उपाय है ही नहीं।