श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी70. भगवत्-भजन में बाधक भाव
प्रभु भक्तों को लक्ष्य करके उन्हें समझाते हुए कहने लगे- ‘भाई! तुम्ही सोचो, जो अखिलकोटि ब्रह्माण्डनायक हैं, जिनके एक-एक रोम-कूप में अंसख्यों ब्रह्माण्ड समा सकते हैं, उन्हें कोई योग के ही द्वारा प्राप्त करना चाहे, तो वे उसके वश में केवल श्वास रोकने से ही कैसे आ सकते हैं! कोई कहे कि हम तत्त्वों की संख्या कर-करके उनका पता लगा लेंगे, तो यह उसकी कोरी मूर्खता है। भला, जो बुद्धि से अतीत हैं, जिनके लिये चारों वेद नेति-नेति कहकर कथन कर रहे हैं उनका ज्ञान सांख्य के द्वारा हो ही कैसे सकता है। अब रही धर्म की बात सो धर्म तो उलटा बंधन का ही हेतु है। धर्म से तो तीनों लोकों के विषय-सुखों की ही प्राप्ति हो सकती है। वह भी एक प्रकार से सुवर्ण की बेड़ी ही है। कोई जप से अथवा केवल त्याग से ही उन्हें प्रसन्न करना चाहे तो वे कैसे प्रसन्न हो सकते हैं? त्याग कोई कर ही क्या सकता है? उनकी कृपा के बिना कुछ भी नहीं हो सकता। भक्ति से हीन होकर जप, तप, पूजा, पाठ, यज्ञ, दान, अनुष्ठान आदि कैसे भी सत्कर्म क्यों न किये जायँ, सभी व्यर्थ है। इस बात को भगवान से उद्धव से स्वयं ही कहा है- इस प्रकार भक्तों को भगवद्भक्ति की शिक्षा देते हुए प्रभु सभी को अपूर्व सुख और आनन्द पहुँचाते हुए नवद्वीप में भाँति-भाँति की लीलाएँ करने लगे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हे उद्धव! जिस प्रकार मेरे प्रति वढ़ी हुई भक्ति मुझे वश में कर सकती है, उस प्रकार अष्टांगयो, सांख्य-शास्त्रों का अध्ययन, धर्म, स्वाध्याय तथा तप आदि क्रिया मुझे वश करने में समर्थ नहीं हो सकतीं।
- ↑ श्रीमद्भा. 11/14/20