श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी66. जगाई-मधाई का पश्चात्ताप
नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य करके मधाई ने स्वयं अपने हाथों से परिश्रम करके गंगा जी का एक सुन्दर घाट बनाया। उसी पर एक कुटी बनाकर वह रहने लगा। वहाँ घाट पर स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, मूर्ख-पण्ड़ित, चाण्डाल-पतित जो भी स्नान करने आता, मधाई उसी के चरण पकड़कर अपने अपराधों के लिये क्षमा-याचना करता। वह रोते-रोते कहता- ‘हमने जानमें, अनजान में आपका कोई भी अपराध किया हो, हमारे द्वारा आपको कभी भी कैसा भी कष्ट हुआ हो, उसके लिये हम आपके चरणों में नम्र होकर क्षमा-याचना करते हैं।’ सभी उसकी इस नम्रता को देखकर रोने लगते और उसे गले से लगाकर भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। शास्त्रों में बताया है, जिसे अपने पापों पर हृदय से पश्चात्ताप होता है, उसके चौथाई पाप तो पश्चात्ताप करते ही नष्ट हो जाते हैं। यदि आपके पापकर्मों को लोगों के सामने खूब प्रकट कर दे तो आधे पाप प्रकाशित करने से नष्ट हो जाते हैं और जो पापियों के पापों को अपने मन की प्रसन्नता के लिये कथन करते हैं, चौथाई पाप उनके ऊपर चले जाते हैं। इस प्रकार पाप करने वाला पश्चात्ताप से तथा लोगों के सामने अमानी बनकर सत्यता के साथ पाप प्रकट करने से निष्पाप बन जाता है। |