श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी66. जगाई-मधाई का पश्चात्ताप
इस प्रकार मधाई में दीनता और महापुरुषों की अहैतु की कृपा से भगवद्भक्तों के सभी गुण आ गये। भगवद्भक्त शीत, उष्ण आदि द्वन्द्वों को सहन करने वाले, सभी प्राणियों के ऊपर करुणा के भाव रखने वाले, सभी जीवों के सुहृद्, किसी से शत्रुता न करने वाले, शान्त तथा सत्कर्मों का सदा करते रहने वाले होते हैं।[1] वे विषय-भोगों की इच्छा भूलकर भी कभी नहीं करते। उनमें सभी गुण आप-से-आप ही आ जाते हैं। क्यों न आवें, भगवद्भक्ति का प्रभाव ही ऐसा है। हृदय में भगवद्भक्ति का संचार होते ही सम्पूर्ण सद्गुण आप-से-आप ही भगवद्भक्त के पास आने लगते हैं। जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा है- इस प्रकार थोडे़ ही दिनों में मधाई की भगवद्भक्ति की दूर-दूर तक ख्याति हो गयी। लोग उसके पुराने पापों को ही नहीं भूल गये, किंतु उसके पुराने मधाई नाम का भी लोगों को स्मरण नहीं रहा। मधाई अब ‘ब्रह्मचारी’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। अहा! भगवद्भक्ति मे कितनी भारी अमरता है? भगवन्नाम पापों की क्षय करने की कैसी अचूक ओषधि है? इस रसायन के पान करने से पापी-से-पापी भी पुण्यात्मा बन सकता है। नवद्वीप में ‘मधाईघाट’ आजतक भी उस महामहिम परम भागवत मधाई के नाम को अमर बनाता हुआ भगवान के इस आश्वासन-वाक्य का उच्च स्वर से निर्घोष कर रहा है- चाहे कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, उसने चाहे सभी पापों का अन्त ही क्यों न कर डाला हो, वह भी यदि अनन्य होकर-और सभी आश्रय छोड़कर एकमात्र मेरे में ही मन लगाकर मेरा ही स्मरण-ध्यान करता है तो उसे सर्वश्रेष्ठ साधु ही समझना चाहिये। क्योंकि उसकी भलीभाँति मुझमें ही स्थिति हो चुकी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तितिक्षव: कारुणिका: सुहृद: सर्वदेहिनाम्। अजातशत्रव: शान्ता: साधव: साधुभूषणा:।।
- ↑ हे देवताओ! जिस भक्त की विष्णुभगवान के चरणकमलों में अहैतुकी भक्ति है, उस भक्त के हृदय में सम्पूर्ण दिव्य-दिव्य गुण आप-से-आप ही आ-आकर अपना घर बना लेते हैं। जो अनित्य सांसारिक विषय-सुखों में ही निमग्न रहकर मनके रथकर सवार होकर विषय-बाजार में विहार करता रहता है, ऐसे अभक्त के समीप महत्पुरुषों-से गुण कहाँ रह सकते हैं? 5/18/12