63. जगाई-मधाई की क्रूरतानित्यानन्द की उनके उद्धार के निमित्त प्रार्थना
भगवान कहते हैं- ‘जिस समय मनुष्य देवताओं से, वैदिक कर्मों से, गौओं से, ब्राह्मणों से, साधु-महात्माओं से, धार्मिक कृत्यों से और मुझसे विद्वेष करने लगता है, तो उसका शीघ्र ही नाश हो जाता है।’ इनसे कोई भी बात नहीं बची थी। देवताओं के मंदिर में जाना तो उन्होंने जन्म से ही नहीं सीखा था, ब्राह्मण होने पर भी ये वेद का नाम तक नहीं जानते थे। मांस तो इनका नित्यप्रति का भोजन ही था, साधु-ब्राह्मणों की अवज्ञा कर देना तो इनके लिये साधारण-सी बात थी। जिसे भी चाहते बाजार में खड़ा करके जूतों से पिटवा देते। किसी का सम्मान करना तो ये जानते ही नहीं थे। अच्छे-अच्छे कर्मकाण्डी और विद्वान ब्राह्मण इनके नाम से थर-थर कांपने लगते थे। किसी को इनके सामने तक जाने की हिम्मत नहीं होती थी। धर्म किस चिड़िया का नाम है और वह कहाँ रहती है, इसका तो इन्हें पता ही नहीं था। धनिकों के यहाँ डाका डलवा देना, लोगों को कत्ल करा देना, पतिव्रताओं के सतीत्व को नष्ट करा देना, यह तो इनके लिये साधारण-से कार्य थे। न किसी से सीधी बात करना और न किसी के पास बैठना, बस, खूब मदिरा-पान करके उसी के मद में मतवाले हुए ये सदा पापकर्मों में प्रवृत्त रहते थे। ये नगर के क़ाज़ी को खूब धन दे देते, इसलिये वह भी इनके विरुद्ध कुछ नहीं कहता था। वैसे इनका घर तो भगवती भागीरथी के तटपर ही था, किंतु ये घर में नहीं रहते थे। सदा डेरा-तम्बू लेकर एक मुहल्ले से दूसरे मुहल्ले में दौरा करते। अब के इस मुहल्ले में इनका डेरा पड़ा है तो अब के उसमे। इसी प्रकार ये मुहल्ले-मुहल्ले में दस-दस, बीस-बीस दिन रहते। जिस मुहल्ले में इनका डेरा पड़ जाता, उस मुहल्ले के लोगों के प्राण सूख जाते। कोई भी इनके सामने होकर नहीं निकलता था, सभी आँख बचाकर निकल जाते। इस प्रकार इनके पाप पराकाष्ठापर पहुँच गये थे। उस समय ये नवद्वीप में अत्याचारों के लिये रावण-कंस की तरह, वक्रदंत-शिशुपाल की तरह, नादिरशाह-गजनी की तरह तथा डायर-आडायर की तरह प्रसिद्ध हो चुके थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 7/4/27