श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी62. घर-घर में हरिनाम का प्रचार
प्रचार का कार्य त्यागी महानुभाव ही कर सकते हैं। भक्तिभाव और भजन-पूजन में सभी को अधिकार है, किंतु लोगों को करने के लिये शिक्षा देना तो त्यागियों का ही काम है। उपदेशक या नेता तो त्यागी ही बन सकते हैं। भगवान बुद्ध राजा बनकर भी धर्म का संगठन कर सकते थे, शंकराचार्य-जैसे परम ज्ञानी महापुरुष को लिंगसंयास और दण्डधारण की क्या आवश्यकता थी? गौरांग महाप्रभु गृहस्थी होते हुए भी संकीर्तन का प्रचार कर सकते थे, किंतु इन सभी महानुभावों ने लोगों को उपदेशकरने के ही निमित्त संयासधर्म को स्वीकार किया। बिना संयासी बने लोकशिक्षण का कार्य भलीभाँति हो भी तो नहीं सकता। प्रभु के भक्तों में दो संयासी थे, एक तो अवधूत नित्यानंद और दूसरे महात्मा हरिदास जी। अवधूत नित्यानंद जी तो लिंगसंयासी थे और महात्मा हरिदास अलिंगसंयासी। ब्रह्मणेतर वर्ण के लिये संन्यास की विधि तो है, किंतु शास्त्रों में उनके लिये संन्यास के चिह्नों का विधान नहीं है, वे विदुर की भाँति अलिंगसंन्यासी बन सकते हैं या वन में वास करके वानप्रस्थधर्म का आचरण कर सकते हैं, इसीलिये हरिदास जी ने किसी भी प्रकार का साधुओं का-सा वेश नहीं बनाया था। प्रभुप्राप्ति के लिये किसी प्रकार का बाह्य वेश बनाने की आवश्यकता भी नहीं है। प्रभु तो अन्तर्यामी हैं, उनसे न तो भीतर के भाव ही छिपे हैं और न वे बाहरी चिह्नों को देखकर धोखा खा सकते हैं। चिह्न धारण करना तो एक प्रकार की लोक-परम्परा है। प्रभु ने नित्यानन्द और हरिदास जी को बुलाकर कहा- ‘अब इस प्रकार एकान्त में ही संकीर्तन करते रहने से काम नहीं चलेगा। अब हमें नगर-नगर और घर-घर में हरिनाम का प्रचार करना होगा। यह काम आप लोगों के सुपुर्द किया जाता है। आप दोनों ही नवद्वीप के मुहल्ले-मुहल्ले और घर-घर में जाकर हरिनाम का प्रचार करें। लोगों से विनय करके, हाथ जोड़ तथा पैर छूकर आप लोग हरिनाम की भिक्षा मांगें। आप लोग हरिनाम-वितरण करते समय पात्रापात्र अथवा छोटे-बडे़ का कुछ भी खयाल न करें। ब्राह्मण से लेकर चाण्डालपर्यन्त, पण्डित से लेकर मूर्खतक सबको समान-भाव से हरिनाम का उपदेश करें। हरिनामके सभी प्राणी अधिकारी हैं। जो भी जिज्ञासा करे अथवा न भी करे उसी के सामने आपलोग भगवान के सुमधुर नामों का संकीर्तन करें। उससे भी संकीर्तन करने की प्रार्थना करें। जाइये, श्रीकृष्ण भगवान आपके इस कार्य में सहायक होंगे। प्रभु का आदेश पाकर दोनों ही अवधूत परम उल्लास के सहित नवद्वीप में हरिनाम-वितरण करने के लिये चले। दोनों एक ही उद्देश्य से तथा एक ही काम के लिये साथ-ही-साथ चले थे, किंतु दोनों के स्वभाव में आकाश-पाताल का अन्तर था। नित्यानन्द का रंग गोरा था, हरिदास कुछ काले थे। नित्यानन्द लम्बे और कुछ पतले थे, हरिदास जी का शरीर कुछ स्थूल और ठिगना-सा था। हरिदास गम्भीर प्रकृति के शान्त पुरुष थे और नित्यानन्द परम उद्दण्ड और चंचल प्रकृति के। हरिदास की अवस्था कुछ ढलने लगी थी, नित्यानन्द अभी पूर्ण युवक थे। |