श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी61. प्रेमोन्मत्त अवधूत का पादोदकपान
इसके अनन्तर प्रभु ने निताई के पादपद्मों में स्वयं ही सुगंधित चंदन का लेप किया, पुष्प चढ़ाये और उनके चरणों को अपने हाथों से पखारा। निताई का पादोदक सभी भक्तों को वितरित किया गया। सभी ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ उसका पान किया। शेष जो बचा उन सबको प्रभु पान कर गये और पान करते हुए बोले- ‘आज हम कृतकृत्य हुए। आज हमारा जन्म सफल हुआ। आज हमें यथार्थ श्रीकृष्ण-भक्ति की प्राप्ति हुई। श्रीपाद के चरणामृतपान से आज हम धन्य हुए।' इस प्रकार सभी भक्तों ने अपने-अपने भाग्य की सराहना की। भाग्य की सराहना तो करनी ही चाहिये, भगवान की यथार्थ पूजा तो आज की हुई। भगवान अपनी पूजा से उतने संतुष्ट नहीं होते, जितने अपने भक्तों की पूजा से संतुष्ट होते हैं। उनका तो कथन है, जो केवल मेरे ही भक्त हैं, वे तो भक्त ही नहीं, यथार्थ भक्त तो वही है जो मेरे भक्तों का भक्त हो। भगवान स्वयं कहते हैं- क्योंकि भगवान् को तो भक्त ही अत्यंत प्रिय है। जो उनके प्रियजनों की अवहेलना करके केवल उन्हीं का पूजन करेंगे वे उन्हें किसी प्रकार हो सकेंगे? इसलिये सब प्रकार के आराधनों से विष्णुभगवान् का आराधन श्रेष्ठ जरूर है, किंतु विष्णुभगवान् के आराधन से भी श्रेष्ठ विष्ण-भक्तों का आराधन है।[2] भगवत-भक्तों की महिमा प्रकाशित करने के निमित्त ही प्रभु ने यह लीला की थी। सभी भक्तों को निताई के पादोदकपान से एक प्रकार की आंतरिक शांति-सी प्रतीत हुई। अब निताई को कुछ-कुछ होश हुआ। वे बालकों की भाँति चारों ओर देखते हुए शचीमाता से दीनता के साथ बच्चों की तरह कहने लगे- ‘अम्मा! बड़ी भूख लगी है, कुछ खाने के लिये दो।' माता यह सुनकर जल्दी से भीतर गयी और घर की बनी सुदंर मिठाई लाकर इनके हाथों पर रख दी। ये बालकों की भाँति जल्दी-जल्दी कुछ खाने लगे, कुछ पृथ्वी पर फेंकने लगे। खाते-खाते ही वे माता के चरण छूने को दौड़े। माता डरकर जल्दी से घर में घुस गयी। इस प्रकार उस दिन निताई अपनी अद्भुत लीला से सभी को आनन्दित किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भगवान अर्जुन के प्रति कहते हैं- ‘हे पार्थ! जो मनुष्य मेरे ही भक्त है वे भक्त नहीं है। सर्वोत्तम भक्त तो वे ही हैं जो मेरे भक्तों के भक्त हैं।
- ↑ आराधनानां सर्वोषां विष्णोराराधनं परम्। तस्मात् परतरं देवि तदीयानां समर्चनम्॥ (पद्यपुराण)