श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी52. प्रच्छन्न भक्त पुण्डरीक विद्यानिधि
इसके दूसरे-तीसरे दिन गुप्तभाव से पुण्डरीक महाशय अकेले ही एकान्त में प्रभु के दर्शनों के लिये गये। प्रभु को देखते ही ये उनके चरणों में लिपटकर फूट-फूटकर रुदन करने लगे। विद्यानिधि को अपने चरणों में पड़े हुए देखकर प्रभु मारे प्रेम के बेसुध-से हो गये। उन्होंने पुण्डरीक विद्यानिधि का जोरों के साथ आलिंगन किया। पुण्डरीक के मिलने से उनके आनन्द का पारावार नहीं रहा। उस समय उनकी आँखों से अविरल अश्रु प्रवाहित हो रहे थे। सम्पूर्ण शरीर पुलकित हो रहा था। वे पुण्डरीक की गोदी में अपना सिर रखकर रुदन कर रहे थे। इस प्रकार दो प्रहर तक विद्यानिधि के वक्षःस्थल पर सिर रखे निरन्तर रुदन करते रहे। पुण्डरीक महाशय के सभी वस्त्र प्रभु के अश्रुओं से भीग गये। पुण्डरीक भी प्रेम में बेसुध हुए चुपचाप प्रभु के मुखकमल की ओर एकटक दृष्टि से देख रहे थे। उन्हें समय का कुछ ज्ञान ही नहीं रहा कि कितना समय बीत गया है। दोपहर के अनन्तर प्रभु को ही कुछ-कुछ होश हुआ। उन्होंने उसी समय भक्तों को बुलाया और सभी से पुण्डरीक महाशय का परिचय कराया। पुण्डरीक महाशय का परिचय पाकर सभी भक्त परम संतुष्ट हुए और अपने भाग्य की सराहना करने लगे। विद्यानिधि ने अद्वैत आदि सभी भक्तों की पदधूलि लेकर अपने मस्तक पर चढ़ायी और सभी को श्रद्धा-भक्ति के साथ प्रणाम किया। इसके अनन्तर पुण्डरीक को बीच में करके सभी भक्त चारों ओर से संकीर्तन करने लगे। श्रीकृष्ण-संकीर्तन को सुनकर पुण्डरीक महाशय फिर बेहोश हो गये। भक्तों ने संकीर्तन बन्द कर दिया और भाँति-भाँति के उपचारों द्वारा पुण्डरीक को होश में किया। कुछ सावधान होने पर प्रभु की आज्ञा लेकर पुण्डरीक अपने स्थान के लिये चले गये। शाम को आकर गदाधर ने पुण्डरीक के समीप से मन्त्र-दीक्षा लेने की अपनी इच्छा प्रभु के सम्मुख प्रकट की। इस बात को सुनकर प्रभु अत्यन्त ही प्रसन्न हुए और गदाधर से कहने लगे- ‘गदाधर! ऐसा सुयोग तुम्हें फिर कभी नहीं मिलेगा। पुण्डरीक-जैसे भगवद्भक्त का मिलना अत्यन्त ही दुर्लभ है। तुम इस काम में अब अधिक देरी मत करो। यह शुभ काम जितना ही शीघ्र हो जाय उतना ही ठीक है।’ प्रभु की आज्ञा पाकर नियत शुभ तिथि के दिन गदाधरजी ने विद्यानिधि से मन्त्र-दीक्षा ले ली। जिनके लिये महाप्रभु गौरांग स्वयं रुदन करते हों, जिनकी प्रशंसा करते-करते प्रभु अधीर हो जाते हों, गदाधर-जैसे परम त्यागी और महान भक्त जिनके शिष्य बनने में अपना सौभाग्य समझते हों ऐसे भक्ताग्रगण्य श्रीपुण्डरीक विद्यानिधि की विशद विरुदावली का बखान कौन कर सकता है? सचमुच विद्यानिधि की भक्ति परम शुद्ध और सात्त्विक कही जा सकती है, जिसमें देखावटी या बनावटीपन का लेश भी नहीं था। ऐसे प्रच्छन्न भक्तों की पदधूलि से पापी-से-पापी पुरुष भी परम पावन बन सकता है। |