श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी47. निमाई के भाई निताई
बालक नित्यानन्द देखने में बड़े ही सुन्दर थे। इनका शरीर इकहरा और लावण्यमय था। चेहरे से कान्ति प्रकट होती थी, गौर वर्ण था, आँखें बड़ी-बड़ी और स्वच्छ तथा सुहावनी थीं। इनकी बुद्धि बाल्यकाल से ही बड़ी तीक्ष्ण थी। पाँच वर्ष की अवस्था में इनका विद्यारम्भ-संस्कार कराया गया। विद्यारम्भ-संस्कार होते ही ये खूब मनोयोग के साथ अध्ययन करने लगे। थोड़े ही समय में इन्हें संस्कृत-साहित्य तथा व्याकरण का अच्छा ज्ञान हो गया। ये पाठशाला के समय में तो पढ़ने जाते, शेष समय में बालकों के साथ खूब खेल-कूद करते। इनके खेल अन्य साधारण प्राकृतिक बालकों की भाँति नहीं होते थे। ये बालकों को साथ लेकर छोटी ही उम्र से श्रीकृष्ण-लीलाओं का अभिनय किया करते। किसी बालक को श्रीकृष्ण बना देते, किसी को ग्वाल-बाल और आप स्वयं बलराम बन जाते। कभी गो-चारण-लीला करते, कभी पुलिन-भोजन का अभिनय करते और कभी मथुरा-गमन की लीला बालकों से कराते। इन्हें ये लीलाएँ किसने सिखा दीं और इन्होंने इनकी शिक्षा कहाँ पायी, इसका किसी को कुछ भी पता नहीं चलता। ये सभी शास्त्रीय लीला ही किया करते। कभी-कभी आप रामायण की लीलाओं को बालकों से कराते। किसी को राम बना देते, किसी को भरत, शत्रुघ्न और आप स्वयं लक्ष्मण बन जाते। शेष बालकों को नौकर-चाकर तथा रीछ-वानर बनाकर भिन्न-भिन्न स्थानों की लीलाओं को करते। कभी तो वनगमन का अभिनय करते। कभी चित्रकूट का भाव दर्शाते और कभी सीता-हरण का अभिनय करते। एक दिन आप लक्ष्मण-मूर्छा की लीला कर रहे थे। आप स्वयं लक्ष्मण बनकर मेघनाद की शक्ति से बेहोश होकर पड़े थे। एक लड़के को हनुमान बनकर संजीवन लाने के लिये भेजा। वह लड़का छोटा ही था, इन्होंने जैसे बताया उसे भूल गया। ये बहुत देर तक बेहोश बने पड़े रहे। सचमुच लोगों ने देखा कि इनकी नाड़ी बहुत ही धीरे-धीरे चल रही है। बहुत जगाने पर भी ये नहीं उठते हैं। इसकी सूचना इनके पिता को जाकर बालकों ने दी। पिता यह सुनकर दौड़े आये और उन्होंने भी आकर इन्हें जगाया, किंतु तो भी नहीं जगे। तब तो पिता को बड़ा भारी दुःख हुआ। जो बालक इनके पास रामरूप से बैठा रुदन कर रहा था, उसे याद आयी और उसने हनुमान बनने वाले लड़के को बुलाया। जब हनुमान जी संजीवन लेकर आये और इन्हें वह सुँघायी गयी तब इनकी मूर्छा भंग हुई। इस प्रकार ये बाल्यकाल से ही भाँति-भाँति की शास्त्रीय लीलाओं का अभिनय किया करते थे। पढ़ने-लिखने में ये अपने सभी साथियों से सर्वश्रेष्ठ समझे जाते थे। इनकी बुद्धि अत्यन्त ही तीक्ष्ण थी, प्रायः देखा गया है, पिता का ज्येष्ठ पुत्र के प्रति अत्यधिक प्रेम होता है और माता को सबसे छोटी संतान सबसे प्रिय होती है। फिर ये तो रूप और गुणों में भी अद्वितीय ही थे, इसी कारण हाड़ाई ओझा इन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। वे जहाँ भी कहीं जाते, वहीं इन्हें साथ ले जाते। इनके बिना उन्हें कहीं जाना-आना या अकेले बैठकर खाना-पीना अच्छा ही नहीं लगता था। माता भी इनके मनोहर मुखकमल को देखकर सदा आनन्दसागर में डुबकियाँ लगाती रहती थी। इस प्रकार इनकी अवस्था बारह-तेरह वर्ष की हो गयी। |