श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी44. धीर-भाव
महाप्रभु का कीर्तन बंद मकान में होता था। ऐसा उस समय भक्तों ने नियम बना रखा था कि अनधिकारियों के पहुँचने से भावों में सांसारिकता का समावेश न होने पावे। लोगों के हृदयों में संकीर्तन को देखने की उत्सुकता उत्पन्न हुई। उन्हें यह नियम बहुत ही अखरने लगा। उन्हें प्रभु के इस नियम के प्रति झुँझलाहट होने लगी। जो श्रद्धावान थे, वे तो अपने मन की झुँझलाहट को रोककर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करने लगे और कीर्तन के अन्त में उन्होंने नम्रतापूर्वक कीर्तन में प्रवेश करने की प्रार्थना की। उन्हें अधिकारी समझकर दूसरे दिन से प्रवेश करने की अनुमति मिल गयी और वे उसी नियमपालन के प्रभाव से जीवन में उत्तरोत्तर उन्नति करते हुए सद्वृत्तियों की वृद्धि के द्वारा प्रभु के पादपद्मों तक पहुँच गये, किंतु जो उस नियम के कारण अपनी झुँझलाहट को नहीं रोक सके, उन्हें संकीर्तन के प्रति द्वेष उत्पन्न हुआ। द्वेष के कारण वे वैष्णवों के शत्रु बन गये। संकीर्तन के विरुद्ध प्रचार करने लगे और संकीर्तन को नष्ट करने के लिये भाँति-भाँति के बुरे-बुरे उपाय काम में लाने लगे। उनके क्रूर कर्मों के द्वारा संकीर्तन नष्ट नहीं हुआ, प्रत्युत विरोध के कारण उसकी तो अधिकाधिक वृद्धि ही हुई, किंतु वे दुष्टस्वभाव के मनुष्य स्वयं अधोगति के अधिकारी हुए। उन्होंने शुभ नियम के प्रति असहिष्णुता के भाव प्रदर्शित करके अपने-आपको गड्ढे में गिरा दिया। इन विरोधियों के ही कारण संकीर्तन देशव्यापी बन सका। इस प्रकार इन दुष्ट-पुरुषों के विरोध से भी महापुरुषों के सत्कार्यों में बहुत-सी सहायता मिलती है। इसलिये सत्पुरुषों के शुभ कामों का दुष्ट प्रकृति के पुरुष कितना भी विरोध करें, वे उससे घबड़ाते नहीं, किंतु उस विरोध के कारण और भी दूने उत्साह के साथ उस कार्य में प्रवृत्त हो जाते हैं। |