श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी41. भक्त-भाव
इधर महाप्रभु की ऐसी विचित्र दशा देखकर शचीमाता मन-ही-मन बड़ी दुःखी होतीं। वह दीन होकर भगवान से प्रार्थना करतीं- प्रभो! इस विधवा के एकमात्र आश्रय को अपनी कृपा का अधिकारी बनाओ। नाथ! इस सड़सठ वर्ष की अनाथिनी दुखिया की दीन-हीन दशा पर ध्यान दो। पति परलोकवासी बन चुके, ज्येष्ठ पुत्र बिलखती छोड़कर न जाने कहाँ चला गया। अब आगे-पीछे यही मेरा एकमात्र सहारा है। इस अन्धी वृद्धा का यह निमाई ही एकमात्र लकुटी है। इस लकुटी के ही सहारे यह संसार में चल-फिर सकती है। हे अशरण-शरण! इसे रोगमुक्त कीजिये, इसे सुन्दर स्वास्थ्य प्रदान कीजिये।’ भोली-भाली माता सभी के सामने अपना दुखड़ा रोतीं। रोते-रोते कहने लगतीं- ‘न जाने निमाई को क्या हो गया है, वह कभी तो रोता है, कभी हँसता है, कभी गाता है, कभी नाचता है, कभी रोते-रोते मूर्च्छित होकर गिर पड़ता है, कभी जोरों से दोड़ने लगता है और कभी किसी पेड़ पर चढ़ जाता है।’ स्त्रियाँ भाँति-भाँति की बातें कहतीं। कोई कहती- ‘अम्मा जी! तुम भी बड़ी भोली हो, इसमें पूछना ही क्या है, वही पुराना वायुरोग है। समय पाकर उभर आया है। किसी अच्छे वैद्य से इसका इलाज कराइये।’ कोई कहती- ‘वायुरोग बड़ा भयंकर होता है, तुम निमाई के दोनों पैरों को बाँधकर उसे कोठरी में बंद करके रखा करो, खाने के लिये हरे नारियल का जल दिया करो। इससे धीरे-धीरे वायुरोग दूर हो जायगा।’ कोई-कोई सलाह देतीं- ‘शिवातैल का सिर में मर्दन कराओ, सब ठीक हो जायगा। भगवान सब भला ही करेंगे। वे ही हम सब लोगों की एकमात्र शरण हैं।’ बेचारी शचीमाता सबकी बातें सुनतीं और सुनकर उदासभाव से चुप हो जातीं। इकलौते पुत्र के पैर बाँधकर उसे कोठरी में बंद कर देने की उसकी हिम्मत न पड़ती। बेचारी एक तो पुत्र के दुःख से दुःखी थी, दूसरा उसे विष्णुप्रिया का दुःख था। पति की ऐसी दशा देखकर विष्णुप्रिया सदा चिन्ति ही बनी रहतीं। उन्हें अन्न-जल कुछ भी अच्छा नहीं लगता। उदासीन भाव से सदा पति के ही सम्बन्ध में सोचती रहतीं। शचीमाता के बहुत अधिक आग्रह करने पर पति के उच्छिष्ट अन्न में से दो-चार ग्रास खा लेतीं, नहीं तो सदा वैसे ही बैठी रहतीं। इससे शचीमाता का दुःख दुगुना हो गया था। उनकी अवस्था सड़सठ वर्ष की थी। |