श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी41. भक्त-भाव
गंगा जी पर पहुँचकर ये प्रत्येक वैष्णव की पदधूलि को अपने मस्तक पर चढ़ाते। उनकी वन्दना करते और भावावेश में आकर कभी-कभी प्रदक्षिणा भी करने लगते। भक्तगण इन्हें भाँति-भाँति के आशीर्वाद देते। कोई कहता- ‘भगवान करे आपको भगवान की अनन्य भक्ति की प्राप्ति हो।’ कोई कहता- ‘आप प्रभु के परम प्रिय बनें।’ कोई कहता- ‘श्रीकृष्ण तुम्हारी सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।’ सबके आशीर्वादों को सुनकर प्रभु उनके चरणों में लोट जाते और फूट-फूटकर रोने लगते। रोते-रोते कहते- ‘आप सभी वैष्णवों के आशीर्वाद का ही सहारा है, मुझ दीन-हीन कंगाल पर आप सभी लोग कृपा कीजिये। भागवत पुरुष बड़े ही कोमल स्वभाव के होते हैं, उनका हृदय करुणा से सदा भरा हुआ होता है, वे पर-पीड़ा को देखकर सदा दुःखी हुआ करते हैं। मुझ दुखिया के दुःख को भी दूर करो? मुझे श्रीकृष्ण से मिला दो, मेरी मनोकामना पूर्ण कर दो, मेरे सत्संकल्प को सफल बना दो। यही मेरी आप सभी वैष्णवों के चरणों में विनीत प्रार्थना है। घाट पर बैठे हुए वैष्णवों की, प्रभु जो भी मिल जाती वही सेवा कर देते। किसी का चन्दन ही घिस देते, किसी की गीली धोती को ही धो देते। किसी के जल के घड़े को भरकर उसके घर तक पहुँचा आते। किसी के सिर में आँवला तथा तैल ही मलने लगते। भक्तों की सेवा-शुश्रूषा करने में ये सबसे अधिक सुख का अनुभव करते। वृद्ध वैष्णव इन्हें भाँति-भाँति के उपदेश करते। कोई कहता ‘निरन्तर श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहना ही एकमात्र सार है। तुम्हें श्रीकृष्ण ही कहना चाहिये, श्रीकृष्ण के मनोहर नामों का ही स्मरण करते रहना चाहिये। श्रीकृष्ण-कथाओं के अतिरिक्त अन्य कोई भी संसारी बातें न सुननी चाहिये। सम्पूर्ण जीवन श्रीकृष्णमय ही हो जाना चाहिये। खाते कृष्ण, पीते कृष्ण, चलते कृष्ण, उठते कृष्ण, बैठते कृष्ण, हँसते कृष्ण, रोते कृष्ण, इस प्रकार सदा कृष्ण-कृष्ण ही कहते रहना चाहिये। श्रीकृष्णनामामृत के अतिरिक्त इन्द्रियों को किसी प्रकार के दूसरे आहार की आवश्यकता ही नहीं है। इसी का पान करते-करते वे सदा अतृप्त ही बनी रहेंगी।’ वृद्ध वैष्णवों के सदुपदेशों को ये श्रद्धा के साथ श्रवण करते, उनकी वन्दना करते और उनकी पद-धूलि को मस्तक पर चढ़ाते तथा अंजन बनाकर आँखों में आँजने लगते। इनकी ऐसी भक्ति देखकर वैष्णव कहने लगते- ‘कौन कहता है, निमाई पण्डित पागल हो गया है, ये तो श्रीकृष्ण-प्रेम में मतवाले बने हुए हैं। इन्हें तो प्रेमोन्माद है। अहा! धन्य है इनकी जननी को जिनकी कोख से ऐसा सुपुत्र उत्पन्न हुआ।’ वैष्णवगण इस प्रकार इनकी परस्पर में प्रशंसा करने लगते। |