श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी30. दिग्विजयी का वैराग्य
मालूम होता है, आप मुझे सम्मान प्रदान करने और मेरी टूटी-फूटी कुटिया को पवित्र करने के ही निमित्त यहाँ पधारे हैं। इसे मैं अपना परम सौभाग्य समझता हूँ। आज यह घर पवित्र हुआ। मेरी विद्या सफल हुई जो आप ऐसे महापुरुषों के चरण यहाँ पधारे।’ दिग्विजयी पण्डित नीचे सिर किये चुपचाप प्रभु की बातें सुन रहे थे। वे कुछ भी नहीं बोलते थे। इसलिये प्रभु ने धीरे-धीरे फिर कहना प्रारम्भ किया- ‘कल मुझे पीछे से बड़ी लज्जा आयी। मैंने व्यर्थ में ही कुछ कहकर आपके सामने धृष्टता की, आप कुछ और न समझें। आपने सुना ही होगा, मेरा स्वभाव बड़ा ही चंचल है। जब मैं कुछ कहने लगता हूँ तो आगे-पीछे की सब बातें भूल जाता हूँ। बस, फिर बकने ही लगता हूँ! छोटे-बड़े का ध्यान ही नहीं रहता। इसी कारण कल कुछ अनुचित बातें मेरे मुख से निकल गयी हों तो उनके लिये मै। आपसे क्षमा चाहता हूँ।’ दिग्विजयी ने अधीर होकर कहा- ‘प्रभो! अब मुझे अधिक वंचित न कीजिये। मुझे सरस्वती देवी ने रात्रि में सब बातें बता दी हैं, अब मेरे उद्धार का उपाय बताइये।’ प्रभु ने कहा- ‘आप कैसी बातें कह रहे हैं? आप शास्त्रों के मर्म को भलीभाँति जानते हैं, फिर भी मुझे सम्मान देने की दृष्टि से आप पूछते ही हैं, तो मैं निवेदन करता हूँ। असल में मनुष्य का एकमात्र कर्तव्य तो उसी को समझना चाहिये जिसके द्वारा प्रभु के पाद-पद्मों में प्रगाढ़ प्रीति उत्पन्न हो। यह जो आप हाथी-घोड़ों को साथ लिये घूम रहे हैं, यह भी ठीक ही है, किन्तु इनसे संसारी भोगों की ही प्राप्ति हो सकती है। भगवत-प्राप्ति में ये बातें कारण नहीं बन सकतीं। आप तो सब जानते ही हैं- वाग्वैखरी शब्दझरी शास्त्रव्याख्यानकौशलम्। अर्थात् सुन्दर सुललित सौष्ठवयुक्त धाराप्रवाह वाणी और बढ़िया व्याख्यान देने की युक्ति ये सब मनुष्य को संसारी भोगों की ही प्राप्ति करा सकती हैं। इनके द्वारा मुक्ति अर्थात प्रभु के पाद-पद्मों की प्राप्ति नहीं हो सकती। संसारी प्रतिष्ठा का महत्त्व ही क्या है? जो चीज आज है और कल नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करना व्यर्थ है। महाराज भर्तृहरि ने इस बात को भलीभाँति समझा था। वे स्वयं राजा थे, सब प्रकार के मान-सम्मान और संसारी भोग-पदार्थ उन्हें प्राप्त थे। उनकी राजसभा में बड़े-बड़े धुरन्धर विद्वान दूर-दूर से नित्यप्रति आया ही करते थे। इसीलिये उन्हें इन सब बातों का खूब अनुभव था, वे सब जानते थे कि इतने भारी-भारी विद्वान इज्जत-प्रतिष्ठा और अनित्य तथा दुःख का मुख्य हेतु बताने वाले धन के किस प्रकार कुत्ते की तरह पूँछ हिलाते रहते हैं। |