श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी30. दिग्विजयी का वैराग्य
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः इन श्रुति, स्मृति, पुराण और बड़े विस्तार के साथ शास्त्रों के ही पठन-पाठन में जिन्दगी को लगाये रहने से क्या होता है। बस इनसे स्वर्गरूपी ग्राम में एक कुटी बनाकर भोगों को भोगने का ही अवसर मिल जाता है। इस कर्मकाण्ड के क्रिया-कलापों में कालयापन करने से क्या लाभ? जो इस दुःखरचना से युक्त संसार-बन्धन को विध्वंस करने में प्रलयाग्नि के समान तेजोमय हैं ऐसे प्रभु के पाद-पद्मों को नैरन्तर्य भाव से सेवन करते रहने के अतिरिक्त ये सभी कार्य वैश्यों के-से व्यापार हैं। एक चीज को देकर उसके बदले में दूसरी चीज लेना है। असली वस्तु तो प्रभु की प्राप्ति ही है। उसी के लिये उद्योग करना चाहिये।’ दिग्विजयी ने कहा- ‘अब आप हमें हमारा कर्तव्य बता दीजिये। ऐसी हालत में हमें क्या करना चाहिये। अब इन वणिक-व्यापार से तो एकदम घृणा हो गयी है।’ प्रभु ने हँसते हुए कहा- ‘आप शास्त्रज्ञ हैं, सब कुछ जानते हैं। शास्त्र में सभी विषय भरे पड़े हैं, आपसे कोई विषय छिपा थोड़े ही है, किन्तु हाँ, इसे मैं आपका परम सौभाग्य ही समझता हूँ कि इतनी बड़ी भारी प्रतिष्ठा से आपको एकदम वैराग्य हो गया है, लोग पुत्रैषणा और वित्तैषणा को तो छोड़ भी सकते हैं, किन्तु लोकैषणा इतनी प्रबल होती है कि बड़े-बड़े महापुरुष भी इसे छोड़ने में पूर्ण रीति से समर्थ नहीं होते। श्रीहरि भगवान की आपके ऊपर यह परम असीम कृपा ही समझनी चाहिये कि आपको इसकी ओर से भी वैराग्य हो गया। मैं तो परमसुखस्वरूप प्रभु की प्राप्ति में इसे ही मुख्य समझता हूँ। मैंने तो इस श्लोक को ही कर्तव्यता का मूलमन्त्र समझ रखा है- धर्म भजस्व सततं त्यज लोकधर्मान् धर्म का आचरण करो और विषयवासनारूपी जो लोकधर्म हैं उन्हें छोड़ दो। सत्पुरुषों का निरन्तर संग करो और हृदय से भोगों की इच्छा को निकालकर बाहर फेंक दो। |