श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारी27. पत्नी-वियोग और प्रत्यागमन
प्रसन्नता की मूल वस्तु के अभाव में उनकी प्रसन्नता एकदम जाती रही, वे सदा उदास ही बनी रहने लगीं। उदासी के कारण उन्हें अन्न-जल कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। उनकी अग्नि मन्द हो गयी, पाचनशक्ति नष्ट हो गयी ओर विरह-ज्वाला के ताप से सदा ज्वर-सा रहने लगा। पिता ने चिकित्सकों को दिखाया, किन्तु बेचारे संसारी वैद्य इस रोग का निदान कर ही क्या सकते हैं! वात, पित्त, कफ के सिवा वे चैथी बात जानते ही नहीं हैं। यह इन तीनों से विलक्षण ही धातु-विकार व्याधि है, इस कारण वैद्यों के उपचार से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। धीरे-धीरे लक्ष्मी देवी का शरीर अधिकाधिक क्षीण होने लगा। किसी को भी उनके जीवन की आशा न रही। वे मानो अपने अत्यन्त क्षीण शरीर को अन्तिम बार पति-दर्शनों की लालसा से ही टिकाये हुए हैं, किन्तु उनकी यह अभिलाषा पूरी न हो सकी। निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में अनुमान से अधिक दिन लग गये। अन्त में बड़े कष्ट के साथ वियोग-व्यथा को न सह सकने के कारण अपने पतिदेव के चरण-चिह्नों को हृदय में धारण करके उन्होंने इस पांचभौतिक शरीर का त्याग कर दिया। वे इस मर्त्यलोक की भूमि को त्यागकर सतियों के रहने योग्य अपने-पुण्य-लोक में पति-मिलन की आकांक्षा से चली गयीं। घरवालों ने रोते-रोते उनके सभी संस्कार किये। इधर निमाई पण्डित को पूर्व बंगाल में भ्रमण करते हुए कई मास बीच गये। अब इन्हें घर की चिन्ता होने लगी। इन्हें भान होने लगा कि हमारे घर पर जरूर कुछ अनिष्ट हुआ है, हृदय के भाव तो असंख्यों कोसों पर से हृदय में आ जाते हैं। लक्ष्मी देवी की अन्तिम वेदना इनके हृदय को पीड़ा पहुँचाने लगी। इन्हें अब कहीं आगे जाना अच्छा नहीं लगता था, इसलिये इन्होंने साथियों को नवद्वीप लौट चलने की आज्ञा दी। आज्ञापाकर सभी नवद्वीप लौट चलने की तैयारियाँ करने लगे। बहुत-से नवीन छात्र भी विद्योपार्जन के निमित्त इनके साथ हो लिये थे। उन सभी को साथ लेकर ये नवद्वीप की ओर चल पड़े। इन्हें काफी धन तथा अन्य आवश्यकीय वस्तुएँ भेंट तथा उपहार में प्राप्त हुई थीं। थोडे़ दिनों में ये फिर नवद्वीप में ही आ गये। इनके आगमन का समाचार बिजली की तरह नगर में फैल गया। इनके इष्ट, मित्र, स्नेही तथा पुराने छात्र दर्शनों के लिये इनके घर पर आने लगे। ये सभी से यथोचित प्रेमपूर्वक मिले। सभी ने यात्रा के कुशल-समाचार पूछे। इन्होंने सबसे पहले अपनी माता के चरणों को स्पर्श किया। माता का चेहरा मुरझाया हुआ था, वे पुत्र-वधू के वियोग और पुत्र की चिन्ता के कारण अत्यन्त दुःखी-सी मालूम पड़ती थीं। |