श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: ।
उत्तर- ‘अपि’ पद से भगवान् यह दिखलाते है कि जैसे श्रद्धा और यजन सात्त्विक, राजस और तामस-भेद से तीन प्रकार के होते हैं, वैसे ही आहार भी तीन प्रकार के होते हैं। प्रश्न- ‘सर्वस्य’ पद का क्या अर्थ है? उत्तर- ‘सर्वस्य’ पद यहाँ मनुष्यमात्र का वाचक है, क्योंकि आहार सभी मनुष्य करते हैं और यह प्रकरण भी मनुष्यों का ही है। प्रश्न- आहारादि के सम्बन्ध में अर्जुन ने कुछ भी नहीं पूछा था, फिर बिना ही पूछे भगवान् ने आहारादि की बात क्यों कही? उत्तर- मनुष्य जैसा आहार करता है, वैसा ही उसका अन्तःकरण बनता है और अन्तःकरण के अनुरूप ही श्रद्धा भी होती है। आहार शुद्ध होगा तो उसके परिणामस्वरूप अन्तःकरण भी शुद्ध होगा। ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः।’[1] अन्तःकरण की शुद्धि से ही विचार, भाव, श्रद्धादि गुण और क्रियाएँ शुद्ध होंगी। अतएव इस प्रसंग में आहार का विवेचन आवश्यक है। दूसरे, यजन अर्थात् देवादि का पूजन सब लोग नहीं करते; परन्तु आहार तो सभी करते हैं। जैसे जो जिस गुण वाले देवता, यक्ष-राक्षस या भूत-प्रेतों की पूजा करता है- वह उसी के अनुसार सात्त्विक, राजस और तामस गुण वाला समझा जाता है; वैसे ही सात्त्विक, राजस और तामस आहारों में जो आहार जिसको प्रिय होता है, वह उसी गुण वाला होता है। इसी भाव को लेकर श्लोक में ‘प्रियः’ पद देकर विशेष लक्ष्य कराया गया है। अतः आहार की दृष्टि से भी उसकी पहचान हो सकती है। इसीलिये भगवान् ने यहाँ आहार के तीन भेद बतलाये हैं तथा सात्त्विक आहार का ग्रहण कराने के लिये और राजस-तामस का त्याग कराने के लिये भी इसके तीन भेद बतलाये हैं। यही बात यज्ञ, दान और तप के विषय में भी समझ लेनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छान्दोग्य उ. 7। 26। 2
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