श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जना: ।
उत्तर- जिस तप के करने का शास्त्रों में विधान नहीं है, जिसमें शास्त्रविधि का पालन नहीं किया जाता, जिसमें नाना प्रकार के आडम्बरों से शरीर और इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाया जाता है और जिसका स्वरूप बड़ा भयानक होता है- ऐसे तप को शास्त्रविधि से रहित घोर तप कहते हैं। प्रश्न- इस प्रकार तप करने वाले मनुष्यों को दम्भ और अहंकार से युक्त बतलाने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- इस प्रकार के शास्त्रविरुद्ध भयानक तप करने वाले मनुष्यों में श्रद्धा नहीं होती। वे लोगों को ठगने के लिये और उन पर रोब जमाने के लिये पाखण्ड रचते हैं तथा सदा अहंकार से फूल रहते हैं। इसी से उन्हें दम्भ और अहंकार से युक्त कहा गया है। प्रश्न- ऐसे मनुष्यों को कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उनकी भोगों में अत्यन्त आसक्ति होती है, इससे उनके चित्त में निरन्तर उन्हीं भोगों की कामना बढ़ती रहती है। वे समझते हैं कि हम जो कुछ चाहेंगे, वही प्राप्त कर लेंगे; हमारे अन्दर अपार बल है, हमारे बल के सामने किस की शक्ति है जो हमारे कार्य में बाधा दे सके। इसी अभिप्राय से उन्हें कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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