श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ।
उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये- इसकी व्यवस्था श्रुति, वेदमूलक स्मृति और पुराण-इतिहासादि शास्त्रों से प्राप्त होती है। अतएव इस विषय में मनुष्य को मनमाना आचरण न करके शास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिये। अर्थात् इन शास्त्रों में जिन कर्मों के करने का विधान है, उनको करना चाहिये और जिनका निषेध है, उन्हें नहीं करना चाहिये। प्रश्न- ऐसा जानकर तू शास्त्राविधि से नियत कर्म ही करनेयोग्य है- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया है कि इस प्रकार शास्त्रों को प्रमाण मानकर तुम्हें शास्त्रों में बतलाये हुए कर्तव्य कर्मों का ही विधिपूर्वक आचरण करना चाहिये, निषिद्ध कर्मों का कभी नहीं। तथा उन शास्त्रविहित शुभ कर्मों का आचरण भी निष्काम भाव से ही करना चाहिये, क्योंकि शास्त्रों में निष्काम भाव से किये हुए शुभ कर्मों को ही भगवत्प्राप्ति में हेतु बतलाया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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