श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
षोडश अध्याय
द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च ।
उत्तर- ‘सर्ग’ सृष्टि को कहते हैं, भूतों की सृष्टि को भूतसर्ग कहते हैं। यहाँ ‘अस्मिन् लोके’ से मनुष्यलोक का संकेत किया गया है तथा इस अध्याय में मनुष्यों के लक्षण बतलाये गये हैं, इसी कारण यहाँ ‘भूतसर्गौ पद का अर्थ ‘मनुष्य-समुदाय’ किया गया है। प्रश्न- मनुष्यसमुदाय को दो प्रकार बतलाकर उसके साथ ‘एव’ पद के प्रयोग करने का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह भाव दिखलाया गया है कि मनुष्य समुदाय के अनेक भेद होते हुए भी प्रधानतया उसके दो ही विभाग हैं, क्योंकि सब भेद इन दो में आ जाते हैं। प्रश्न- एक दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला- इस कथन का क्या भाव है? उत्तर- इस कथन से दो प्रकार के समुदायों को सपष्ट करते हुए यह बतलाया गया है कि मनुष्यों के उन दो समुदायों में जो सात्त्विक है, वह तो दैवी प्रकृति वाला है; और जो राजोमिश्रित तमःप्रधान है, वह आसुरी प्रकृति वाला है। ‘राक्षसी’ और ‘मोहिनी’ प्रकृति वाले मनुष्यों को यहाँ आसुरी प्रकृति वाले समुदाय के अन्तर्गत ही समझना चाहिये। प्रश्न- दैवी प्रकृति वाला मनुष्यसमुदाय विस्तारपूर्वक कहा गया, अब आसुरी प्रकृति वाले को भी सुन-इस वाक्य का क्या भाव है? उत्तर- इससे यह दिखलाया है कि इस अध्याय के पहले से तीसरे श्लोक तक और अन्य अध्यायों में भी दैवी प्रकृति वाले मनुष्यसमुदाय के स्वभाव, आचरण और व्यवहार आदि का वर्णन तो विस्तारपूर्वक किया जा चुका; किंतु आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों के स्वभाव, आचरण और व्यवहार का वर्णन संक्षेप में ही हुआ है, अतः अब त्याग करने के उद्देश्य से तुम उसे भी विस्तारपूर्वक सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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