श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
त्रयोदश अध्याय
प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि ।
उत्तर- यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द ईश्वर की अनादिसिद्ध मूल प्रकृति का वाचक है। चौदहवें अध्याय में इसी को महद्ब्रह्म के नाम से कहा गया है। सातवें अध्याय के चौथे और पाँचवें श्लोकों में अपरा प्रकृति के नाम से और इसी अध्याय के पाँचवें श्लोक में क्षेत्र के नाम से भी इसी का वर्णन है। भेद इतना ही है कि वहाँ उसके कार्य- मन, बुद्धि, अहंकार और पंचमहाभूतादि के सहित मूल प्रकृति का वर्णन है और यहाँ केवल ‘मूल प्रकृति’ का वर्णन है। प्रश्न- ‘प्रकृति’ और ‘पुरुष’- इन दोनों को अनादि जानने के लिये कहने का तथा ‘च’ और ‘एव’- इन दोनों पदों के प्रयोग का यहाँ क्या अभिप्राय है? उत्तर- प्रकृति और पुरुष- इन दोनों की अनादिता समान हे, इस बात को जानने के लिये अर्थात् इस लक्षण में दोनों की एकता करने के लिये ‘च’ और ‘एव’- इन दोनों पदों का प्रयोग किया गया है। तथा दोनों को अनादि समझने के लिये कहने का यह अभिप्राय है कि जीव का जीवत्व अर्थात् प्रकृति के साथ उसका सम्बन्ध किसी हेतु से होने वाला- आगन्तुक नहीं है, यह अनादिसिद्ध है और इसी प्रकार ईश्वर की शक्ति यह प्रकृति भी अनादिसिद्ध है- ऐसा समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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