श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
उत्तर- महर्षि बहुत-से हैं, उनके लक्षण और उनमें से प्रधान दस के नाम ये हैं- ईश्वराः स्वयमुद्भूता मानसा ब्रह्मणः सुताः। ‘ब्रह्मा के ये मानस पुत्र ऐश्वर्यवान् (सिद्धियों से सम्पन्न) एवं स्वयं उत्पन्न हैं। परिमाण से जिसका हनन न हो (अर्थात् जो अपरिमेय हो) और जो सर्वत्र व्याप्त होते हुए भी सामने (प्रत्यक्ष) हो, वही महान् है। जो बुद्धि के पार पहुँचे हुए (भगवत्प्राप्त) विज्ञजन गुणों के द्वारा उस महान् (परमेश्वर)- का सब ओर से अवलम्बन करते हैं, वे इसी कारण (‘माहन्तम् ऋषन्ति इति महर्षयः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार) महर्षि कहलाते हैं। भृगु, मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलह, क्रतु, मनु, दक्ष, वसिष्ठ और पुलस्त्य- ये दस महर्षि हैं। ये बस ब्रह्मा के मन से स्वयं उत्पन्न हुए हैं और ऐश्वर्यवान् हैं। चूँकि ऋषि (ब्रह्मा जी) से इन ऋषियों के रूप में स्वयं महान् (परमेश्वर) ही प्रकट हुए, इसलिये ये महर्षि कहलाये।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ वायुपुराण 49। 82-83, 89-90
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