श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
दशम अध्याय
उत्तर- ‘सर्वे’ विशेषण के सहित[1] पद यहाँ मार्कण्डेय, अंगिरा आदि समस्त ऋषियों का वाचक है और अपनी मान्यता के समर्थन में अर्जुन उनके कथन का प्रमाण दे रहे हैं। अभिप्राय यह है कि वे लोग आपको सनातन-नित्य एकरस रहने वाले, क्षयविनाशरहित, दिव्य-स्वतः प्रकाश और ज्ञानस्वरूप, सबके आदिदेव तथा अजन्मा-उतपत्तिरूप विकार से रहित और सर्वव्यापी बतलाते हैं। अतः आप ‘परम ब्रह्म’, ‘परम धाम’ और ‘परम पवित्र’ हैं- इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है।[2] प्रश्न - देवर्षि के क्या लक्षण हैं और ऐसे देवर्षि कौन-कौन हैं? उत्तर- देवर्षि के लक्षण ये हैं- देवलोकप्रतिष्ठाश्च ज्ञेया देवर्षयः शुभाः।। ‘जिनका देवलोक में निवास है, उन्हें शुभ देवर्षि समझना चाहिये। इनके सिवा वैसे ही जो दूसरे और देवर्षि हैं, उनके लक्षण कहता हूँ। भूत, भविष्यत् और वर्तमान का ज्ञान होना तथा सब प्रकार से सत्य बोलना-देवर्षि का लक्षण है। जो स्वयं भलीभाँति ज्ञान को प्राप्त हैं तथा जो स्वयं अपनी इच्छा से ही संसार से सम्बद्ध हैं, जो अपनी तपस्या के कारण इस संसार में विख्यात हैं, जिन्होंने (प्रह्लादादि को) गर्भ में ही उपदेश दिया है, जो मन्त्रों के वक्ता हैं और जो ऐश्वर्य (सिद्धियों)- के बल से सर्वत्र सब लोकों में बिना किसी बाधा के जा-आ सकते हैं और जो सदा ऋषियों से घिरे रहते हैं, वे देवता, ब्राह्मण और राजा-ये सभी देवर्षि हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑
‘ऋषयः’ऋषीत्येष गतौ धातुः श्रुतौ सत्ये तपस्यथ। एतत् सन्नियतं यस्मिन् ब्रह्मणा स ऋषिः स्मृतः।।
गत्यर्थादृषतेर्धातोर्नामनिर्वृत्तिरादितः। यस्मादेष स्वयम्भूतस्तस्माच्च ऋषिता स्मृता।। (वायुपुराण 51। 71, 81)‘ऋष’ धातु गमन (ज्ञान), श्रवण, सत्य और तप इन अर्थों में प्रयुक्त होता है। ये सब बातें जिसके अंदर एक साथ निश्चित रूप से हों, उसी का नाम ब्रह्मा ने ‘ऋषि’ रखा है। गत्यर्थक ‘ऋष्’ धातु से ही ऋषि शब्द की निष्पत्ति हुई है और आदि काल में चूँकि यह ऋषिवर्ग स्वयं उत्पन्न होता है, इसीलिये इसकी ‘ऋषि’ संज्ञा है।’
- ↑ परम सत्यवादी धर्ममूर्ति पितामह भीष्म जी ने दुर्योधन को भगवान् श्रीकृष्ण का प्रभाव बतलाते हुए कहा है- ‘भगवान् वासुदेव सब देवताओं के देवता और सबसे श्रेष्ठ हैं; ये ही धर्म है; धर्मज्ञ हैं, वरद हैं, सब कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं और ये ही कर्ता‚ कर्म और स्वयंप्रभु हैं। भूत, भविष्यत्, वर्तमान, सन्ध्या, दिशाएँ, आकाश और सब नियमों को इन्हीं जनार्दन ने रचा है। इन महात्मा अविनाशी प्रभु ने ऋषि, तप और जगत् की सृष्टि करने वाले प्रजापति को रचा। सब प्राणियों के अग्रज संकर्षण को भी इन्होंने ही रचा। लोक जिनको ‘अनन्त’ कहते हैं और जिन्होंने पहाड़ों समेत सारी पृथ्वी को धारण कर रखा है, वे शेषनाम भी इन्हीं से उत्पन्न हैं; ये ही वाराह, नृसिंह और वामन का अवतार धारण करने वाले हैं; ये ही सबके माता-पिता हैं, इनसे श्रेष्ठ और कोई भी नहीं है; ये ही केशव परम तेजरूप हैं और सब लोगों के पितामह हैं, मुनिगण इन्हें हृषीकेश कहते हैं, ये ही आचार्य, पितर औ गुरु हैं। ये श्रीकृष्ण जिस पर प्रसन्न होते हैं, उसे अक्षय लोक की प्राप्ति होती है। भय प्राप्त होने पर जो इस भगवान् केशव के शरण जाता है और इनकी स्तुति करता है, वह मनुष्य परम सुख को प्राप्त होता है।’ ‘जो लोग भगवान् श्रीकृष्ण की शरण में चले जाते हैं, वे कभी मोह को नहीं प्राप्त होते। महान् भय (संकट) में डूबे हुए लोगों की भगवान् जनार्दन नित्य रक्षा करते हैं।’ ये च कृष्णं प्रपद्यन्ते ते न मुह्यन्ति मानवाः। भये महति सग्नांश्च पाति नित्यं जनार्दनः।।(महा., भीष्म. 67। 24)
- ↑ वायुपुराण 61। 88, 90, 91, 92
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