नवम अध्याय
प्रश्न- ‘यतन्तः’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- भगवान् की पूजा करना, सबको भगवान् का स्वरूप समझकर उनकी सेवा करना और भगवान् के भक्तों द्वारा भगवान् के गुण, प्रभाव और चरित्र आदि का श्रवण करना आदि भगवान् की भक्ति के जिन अंगों का अन्य पदों से कथन नहीं किया गया है, उन सबको उत्साह और तत्परता के साथ करते रहना ‘यतन्तः’ पद से समझ लेना चाहिये।
प्रश्न- भगवान् को बार-बार प्रणाम करना क्या है?
उत्तर- भगवान् के मन्दिरों में जाकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अर्चा-विग्रहरूप भगवान् को साष्टांग प्रणाम करना; अपने घर में भगवान् की प्रतिमा या चित्रपट को, भगवान् के नामों को, भगवान् के चरण और चरण-पादुकाओं को, भगवान् के तत्त्व, रहस्य, प्रेम, प्रभाव और उनकी मधुर लीलाओं का जिनमें वर्णन हो- ऐसे सब ग्रन्थों को एवं सबको भगवान् का स्वरूप समझकर या सबके हृदय में भगवान् विराजित हैं- ऐसा जानकर सम्पूर्ण प्राणियों को यथायोग्य विनयपूर्वक श्रद्धाभक्ति के साथ गद्गद होकर मन, वाणी और शरीर के द्वारा नमस्कार करना- ‘यही भगवान् को प्रणाम करना’ है।
प्रश्न- ‘नित्ययुक्ताः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर- जो चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते और सब कुछ करते समय तथा एकान्त में ध्यान करते समय नित्य-निरन्तर भगवान् का चिन्तन करते रहते हैं, उन्हें ‘नित्युक्ताः’ कहते हैं।
प्रश्न- ‘भक्त्या’ पद का क्या अभिप्राय है और उसके द्वारा भगवान् की उपासना करना क्या है?
उत्तर- श्रद्धायुक्त अनन्य प्रेम का नाम भक्ति है। इसलिये श्रद्धा और अनन्य प्रेम के साथ उपुर्यक्त साधनों को निरन्तर करते रहना ही भक्ति द्वारा भगवान् की उपासना करना है।
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