श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
नवम अध्याय
उत्तर- जिनका आत्मा महान् हो, उन्हें ‘महात्मा’ कहते हैं। महान् आत्मा वही है जो अपने महान् लक्ष्य भगवान् की प्राप्ति के लिये सब प्रकार से भगवान् की ओर लग गया है; अतएव यहाँ ‘महात्मानः’ पद का प्रयोग उन निष्काम अनन्यप्रेमी भगवद्भक्तों के लिये किया गया है, जो भगवत्प्रेम में सदा सराबोर रहते हैं और भगवत्प्राप्ति के सर्वथा योग्य हैं। प्रश्न- यहाँ ‘माम्’ पद भगवान् के किस रूप का वाचक है तथा उनको ‘सब भूतों का आदि’ और ‘अविनाशी’ समझना क्या है? उत्तर- ‘माम्’ पद यहाँ भगवान् के सगुण पुरुषोत्तम रूप का वाचक है। यह सगुण परमेश्वर से ही शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, भोगसामग्री और सम्पूर्ण लोकों के सहित समस्त चराचर प्राणियों की उत्पत्ति, पालन और संहार होता है[1]- इस तत्त्व को सम्यक् प्रकार से समझ लेना ही भगवान् को ‘सब भूतों का आदि’ समझना है। और वे भगवान् अजन्मा तथा अविनाशी हैं, केवल लोगों पर अनुग्रह करने के लिये ही लीला से मनुष्य आदि रूप में प्रकट और अन्तर्धान होते हैं; उन्हीं को अक्षर, अविनाशी परब्रह्म परमात्मा कहते हैं, और समस्त भूतों का नाश होने पर भी भगवान् का नाश नहीं होता[2]- इस बात को यथार्थतः समझना ही ‘भगवान् को अविनाशी समझना’ है। प्रश्न- ‘अनन्यमनसः’ पद किस अवस्था में पहुँचे हुए भक्तों का वाचक है और वे भगवान् को कैसे भजते हैं? उत्तर- जिनका मन भगवान् के सिवा अन्य किसी भी वस्तु में नहीं रमता और क्षणमात्र का भी भगवान् का वियोग जिनको असह्य प्रतीत होता है, ऐसे भगवान् के अनन्यप्रेमी भक्तों का वाचक यहाँ ‘अनन्यमनसः’ पद है। ऐसे भक्त अगले श्लोक में तथा दसवें अध्याय के नवें श्लोक में बतलाये हुए प्रकार से निरन्तर भगवान् को भजते रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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